लेखक की कलम से

मैं और वो पेड़…

मेरी आदत थी अक्सर उस चांद को देखना

करके सिंगार अपने ही रूप को निहारना

वहीं लगा आंगन में वो नीम का पेड़

अक्सर खामोशी से मुझे पढ़ता

मेरी तरह खुद को भी शायद वो तन्हा समझता

एक दिन सहसा मैने कहा

मेरी तरह है तू भी तन्हा

ना जाने क्यों वो हसने लगा

मेरा ही परिहास करने लगा

बोला मैं तो यहां किसी के इंतजार में हूं खड़ा

पर तेरे जीवन में है विरहा बड़ा

कुछ सोच फिर मैं मुस्कुराई

बढ़ के कदम पास उसके आईं

बोली देख तेरा मेरा एक है दर्द

नहीं मिला हम दोनों को हमदर्द

वो बोला इतरा कर

शान से कुछ अकड़कर

देख मेरा इंतजार खतम होने वाला है

कोई मुझे फिर मिलने आने वाला है

वो ठूठ सा पेड़ मुझे लाचार लगने लगा

कई रातों तक तन्हाई का दौर चलता रहा

एक दिन अचानक मदमस्त सावन आया

उसके जीवन में प्रेम की नई कोपले लाया

वो ठूठ सा पेड़ अब दुल्हन की तरह सज गया

शायद उसे महबूब मिल गया

मुझे अकेले देख वो झूम के इतराया

फिर कुछ अंदाज में यू फरमाया

देख बोला था ना कि मैं ठूठ नहीं हूं मैं

तेरी तरह बेबस लाचार नहीं हूं मैं

अरे तू तो खो चुकी अपना आत्मबल

नहीं बहता हृदय में प्रेम झरना कलकल

उठ और फिर सिंगार कर

कोई नहीं तो क्या खुद से प्यार कर

तुझमें में भी आ जाएगी फिर प्रेम साथ की कोपले

जुड़ जाएंगे तुझसे नए फिर खुशी के काफिले

मन को मार कर मत ठूठ बन तू

जीवन है अनमोल खुद से प्रीत कर तू

©दीपिका अवस्थी, बांदा, उत्तरप्रदेश

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