लेखक की कलम से

आदर्श और नैतिकता…

आमतौर पर ये दोनों विषय एक से ही दिखते हैं, लेकिन दोनों के अन्तर को समझने से नैतिक मूल्यों के पालन करने में सुविधा जरूर हो जाती है। हर इंसान कुछ आदर्शों के साथ जीता है, भले ही वो आदर्श दूसरों के लिए आचरण के योग्य साबित न होते हों। आदर्श वो नियम हैं जो हमारी ज़िन्दगी में हमें उन निर्णय तक पहुँचने में मदद करते हैं, जिनसे पता चलता है कि हमारी जिन्दगी में किन चीज़ों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

उदाहरण के तौर पर-एक आदमी पूरी जिन्दगी ईमानदारी के साथ, सारी कठिनाइयों को सहता हुआ आगे बढ़ने के आदर्श पर टिका हुआ है और दूसरा आदमी इस आदर्श के साथ जी रहा है कि जिन्दगी पूरी खुशी के साथ जियो भले ही उन खुशियों के पाने के तरीके गलत हों, क्योंकि दूसरा व्यक्ति यह मानता है कि जिन्दगी एक बार मिली है। अत: किसी भी तरह खुशियों के साथ जीकर जाओ। पहला आदमी, दूसरे आदमी के आदर्शों से ताल्लुकात नहीं रखता क्योंकि वो गाँधी के मूल्यों को जी रहा है; उसका मानना है कि सिर्फ प्राप्य ही सही नहीं होने चाहिए, बल्कि प्राप्ति के साधन भी सही होने चाहिए। अगर प्राप्य धन कमाना है तो साधन गैरकानूनी नहीं होने चाहिए या वह धन किसी और के अधिकारों का हनन करके उपार्जित नहीं किया गया हो। पहले आदमी का मानना है कि किसी चीज़ की प्राप्ति गलत तरीके से हुई है तो वह गलत परिणाम ही लेकर आएगा, इसलिए जिस आदर्श के साथ दूसरा आदमी जी रहा है, उसके साथ इस आदमी का रह पाना सम्भव नहीं है।

सबसे गूढ़ प्रश्न यह है कि आदमी किन परिस्थितियों में अपने आदर्श बनाता है या फिर चुनता है। एक व्यस्क मनुष्य आदर्श अपने विवेक और बुद्धि के द्वारा स्थापित करता है जबकि एक बच्चा अपने आस पास, अपने माँ-बाप, अपने पड़ोसी, अपने स्कूल को देखकर सीखता है। बच्चे का आदर्श है कि उसे भी वो सब चीज़ें मिलनी चाहिए जो दूसरे बच्चे को मिल रही हैं। उसे यह पता नहीं होता कि वह बच्चा ज्यादा अमीर है, दिव्यांग है या किसी और परवरिश में पल-बढ़ा है। अत: एक बच्चा आदर्शों को चुनता है ना कि बनाता है।

एक व्यस्क मनुष्य यदि जीवन में सच या फिर झूठ के साथ जीना चहता है तो यह निर्णय वह खुद बनाता है। हालाँकि यह बहुत हद तक सम्भव है कि एक आदमी दूसरे आदमी के आदर्शों से बहुत हद तक प्रभावित हो और उनके ही आदर्शों को अपना कर जीने की कोशिश करता है। लेकिन फिर एक प्रश्न है कि जो अपने लिए निर्णय नहीं ले पाते,वे मनुष्य की श्रेणी में आ सकते हैं क्या। मनुष्य तथा जानवर, मशीन के बीच कोई फर्क है तो वह है सोचने की क्षमता।

गौतम बुद्ध ने कहा था- मैं हूँ क्योंकि मैं सोच सकता हूँ। महान समाजशास्त्र वैज्ञानिक फूको ने कहा था हम जैसा सोचते हैं, हम वैसा ही बनते चले जाते हैं। हम सब अपनी सोच के गुलाम हैं। अत: हम वैसी सोच ही पाले जो यदि समाज के लिए नहीं तो कम से कम खुद के लिए लाभदायक हो और खतरे से खाली हो। अगर मनुष्य में सोचने की क्षमता का विनाश हो जाए, तो वह पशु की श्रेणी में आने को बाध्य हो ही जाता है। कैसे? निर्भया के दोषी, जब अपने विवेक को भूलकर बलात्कार और फिर अमानवीय हरकत के निर्णय पर पहुँचे तो वो जरूर पशु की श्रेणी में आ गए।

हालांकि यह एक अलग प्रश्न है कि उन्होंने अपनी जिन्दगी किस समाज में गुज़ारी, वहाँ उन्हें कैसे आदर्श मिले और वो आदर्श किसी को देख कर मिले या उन्होंने खुद यह चुना। किसी भी अपराध की सामाजिक और मानसिक अध्ययन बहुत आवश्यक इसलिए है ताकि हिंसा की मानसिक प्रवृति को समझा जाए,इन अपराधियों को अपराध से पहले ही रोका जाए और देश की युवा शक्ति को सही दिशा में मोड़ा जा सके।

यह बहुत ही चिन्तन का विषय है कि किन परिस्थितियों में आदर्शों का गठन हो रहा है। यदि कोई महिला वेश्यावृत्ति को सही मानती है तो ऐसा क्यों मानती है, प्रथम प्रश्न यही होना चाहिए। क्या गरीबी, पुरुष प्रधान समाज, सामाजिक हिंसा, उपेक्षा, असफल वैवाहिक जीवन, कोई अन्य दबाव या स्वयं की इच्छा, उसके इस निर्णय के जिम्मेदार हैं? फिर यह तय करने में आसानी हो जाएगी कि केस दर केस वेश्यावृति सही है या गलत। वहीं पर अगर कोई महिला संभ्रांत परिवार में जन्मी हो, अच्छी परवरिश हो, अच्छी पढ़ी-लिखी हो, अच्छा कमाती हो और समाज में अच्छी पहचान और प्रतिष्ठा हो तो समाज उस स्त्री से कभी भी वेश्यावृति, विवाहेतर संबंध, बहु समलैन्गिक्ता या अंतर समलैंगिकता की अपेक्षा नहीं करता।

फिर भी वह स्त्री इन सब चीज़ों में लिप्त हो तो उसके लिए समाज के आईने में अपराध की व्याख्या अलग प्रकार से की जाएगी। हो सकता है कि उसे आधुनिकता का ताज़ पहना कर या पाश्चात्य का पुरोधा बता कर छोड़ भी दिया जाए, लेकिन आदर्शों के कठघरे में या तो दोनों महिलाएँ अपनी जगह सही हैं या तो दोनों ही महिलाएँ सिर्फ और सिर्फ गलत। आदर्शों का जन्म किसी खाली बरतन में नहीं होता। आदर्श उस बरतन में जन्म लेता है जिसमें पहले से ही सच, झूठ, स्त्रीवाद, पुरूषवाद, राष्ट्रवाद, समाजवाद के जैसे कई वादों के अवयव घुले होते हैं। अत: आदर्शों की नियति एकाकी में तय कर पाना न केवल बेमानी है बल्कि मानवीय तौर पर जघन्य अपराध भी है।

नैतिकता मानवीय मूल्यों की संरचना का उपाय है। मानवीय मूल्य हैं सहानूभूति, दया, क्षमा, स्नेह, मिलाप आदि। मानव की नैतिकता को भी कई बार कठिन रास्तों से गुज़रना पड़ता है। किसी का आदर्श है कि सच बोलो और इसकी नैतिकता यह होगी कि आप शान्ति की जिन्दगी जी पाएँगें। यदि आदर्श पेड़ हैं तो नैतिकता उसके फल। लेकिन क्या सच बोलने की नैतिकता सच में शान्ति लेकर आती है। कुन्ती के एक सच कि कर्ण उसका पुत्र है को बोलने और स्वीकारने के कारण शान्ति नहीं आई, बल्कि महाभारत सा विकराल युद्ध हो गया।

पनामा पेपर्स के तहत सच का खुलासा होने से कई देशों की सरकारें गिर गई। और फिर कहा भी तो जाता है कि जिस झूठ से किसी की जान बच जाए, वह झूठ सच से भी बड़ा होता है। फिर तो सच और झूठ का अन्तर ही खत्म होता सा प्रतीत होता है। नैतिकता यह भी बताता है कि क्या है और क्या होना चाहिए की खाई को कम करना। झूठ बोला जा रहा है और सत्य बोला जाना चाहिए, यह खाई क्या एक व्यक्ति के सच बोलने से कम होगा, या किसी रसूख के सच बोलने से होगा, या किसी जज या पुलिस के सच बोलने से होगा, या केवल औरतों के सच बोलने से होगा या जो हमेशा से दबे-कुचले हुए हैं, उनके सच बोलने से होगा।

किसी भी समाज की नैतिकता जिससे बेहतर समाज जी कल्पना की जा सके, के लिए पूरे समाज की सामूहिक नैतिकता से ही पूर्ण हो पाएगा। इस बात को एक और स्थिति से समझा जाए। नीति कहती है कि शिक्षकों को वर्ग में बच्चों को अच्छे से पढ़ाना चाहिए ताकि बच्चे, अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो सके, लेकिन कोई शिक्षक बच्चों को सही से नहीं पढ़ाता जिससे बच्चे परीक्षा में चोरी कारने को बाध्य हैं। और एक व्यक्ति ऐसे बच्चों को स्वेच्छा से चोरी कराने को राज़ी है क्योंकि उसका मानना है कि यदि बच्चे अपनी कमजोरी से नहीं बल्कि किसी अन्य वजह से असफल होते हैं तो कल को वे राष्ट्र और समाज के प्रति वैमनस्यता रखेंगे, कुछ आपराधिक क्रिया-कलापों से जुड़ जाएँगे और कुछ निर्भया जैसे कृत्यों को भी अंजाम देंगे और इससे समाज का बहुत बड़ा नुकसान होगा।

सो, अब उस नुकसान से बचाने के लिए आज बच्चों को चोरी करा दी जाए, पास करा दिया जाए, नौकरी दे दी जाए ताकि ये बच्चे अपराधी न बने। फिर प्रश्न यह भी है कि उन बच्चों का क्या होगा जो सही तौर पर उस नौकरी के जिम्मेदार थे। क्या कल को वे विक्षिप्त होकर अपराधी नहीं बन जाएँगे ? गूढ़ प्रश्न है कि उस बच्चे की नैतिकता शक के घेरे में है या उस आदमी की नैतिकता जिसने चोरी कराई है। गौरतलब है कि यहाँ नैतिकता “कंडिशनल” हो जाती है। एक की नैतिकता दूसरे पर निर्भर हो जाती है। यदि पहले की नीति सही होती तो दूसरे की नीति अपने आप सही हो जाती। यदि इसको दूसरे तरीके से देखें तो पता चलेगा ऐसा होना कितना खतरनाक है। यदि आपकी नैतिकता दूसरे पर निर्भर है जिसके बारे में आप कुछ जानते नहीं या कुछ कर सकते नहीं तो आप कहीं न कहीं बेवजह, बिना पता चले कि सी और का गुलाम हो जाते हैं।

आखिर रास्ता क्या है सही तरीके से जीने की या “प्रैक्टिकल” होकर जीने की? मुझे यहाँ महात्मा गाँधी का तिलिस्म याद आता है। किसी भी कदम को उठाने से पहले उस आदमी का चेहरा याद करो जिसको आपने अपने जीवन में सबसे शोषित मह्सूस किया हो, तो आप कभी भी वैसा कदम नहीं उठाएंगे जिससे उस गरीब इन्सान का बुरा हो। आदर्श हमारी जिन्दगी में किसको तवज्जो दिया जाए, यह बताते हैं जबकि नैतिकता यह दर्शाता है कि वो तवज्जो किस हद तक सही या गलत हैं। मेरे मायने में हमें बुद्ध के मध्यम मार्ग का अनुशरण करना चाहिए।

आप आदर्श और नैतिकता का पालन जहाँ तक हो सके, वहाँ तक करें। कोई ऐसा कार्य न करें जिससे उस आदमी का बुरा हो जिसको कोई पूछने वाला नहीं है, देखने वाला नहीं है मतलब जो दयनीय रूप में जीवन गुज़ार रहा हो, क्योंकि इतना ही सम्भव है और यही “प्रैक्टिकल ” भी है।

©सलिल सरोज, कार्यकारी अधिकारी, लोकसभा सचिवालय, नई दिल्ली

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