लेखक की कलम से
जीवन …
(लघुकथा)
बेटी का फ़ोन उठाते ही उसकी उदास व निराश आवाज़ से मेरे मन को ठेस पहुँची। बहुत प्यार से मैंने पूछा -“क्या हुआ बेटा ?
उसने शिकायत के लहज़े में कहा -“माँ ! मैं कितना कोशिश करती हूँ ज़िंदगी को व्यवस्थित करने की। पर हर रोज़ कुछ न कुछ !”
मैंने समझाने के लिहाज़ से कहा -“बेटा ! मैं तुमसे दुगनी उम्र की हूँ। पर अब भी कई बार मैं नहीं सँभाल पाती। ताउम्र यूँही हाथ से फिसलती रहती है ज़िंदगी। हम कोशिश करते हैं। पर कई बार हाथ में आती है और कई बार फिसल जाती है। यही जीवन है। चाहे खुश होकर सँभालो या दुखी होकर। ”
गहरी साँस के साथ उसने कहा -“थैंक्यू माँ!”
और फ़ोन रख दिया। अब मेरे दिल को तसल्ली थी।
©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़