लेखक की कलम से

पसीने की प्रयोगशाला में …

 

पसीने की प्रयोगशाला में

 

इकट्ठे किए गए नमूनों पर

 

समाज  – विज्ञानियों का कहना है –

 

बहुत हद तक जाना जा सकता है

 

सिर्फ दो नमूनों से ही

 

पसीने का सामाजशास्त्रीय  रहस्य

 

 

आधा रहस्य खोलती है

 

पसीने की गंध

 

और आधा खुलता है

 

पसीनों के रंग से

 

 

उनका कहना है

 

कि जिस नमूने में खुशबू है किसी

 

डियो की या इत्र की

 

और जिसका रंग है किसी

 

महंगी शराब के जैसा

 

थोड़ा सुनहला या चटक

 

वह जरूर किसी

 

जिमखाने से लिया गया है

 

जहाँ कुछ लोग आते हैं

 

कि वे बहा सकें पसीना

 

क्योंकि उन्हें मालूम है

 

कि वे खाते – पीते लोग नहीं

 

बल्कि अधिक खाते – पीते लोग हैं

 

जानते हैं

 

ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी

 

सेहत के लिए ठीक नहीं है

 

फिर दफ्तर के नियंत्रित

 

20 डिग्री तापमान पर

 

पसीने भी कहाँ छूटते हैं !

 

 

तो बेहतर है कि

 

जितना खर्च हुआ है फास्ट फूड पर

 

उसका कोई पच्चीस फीसदी

 

खर्च किया जाए

 

यहाँ जिमखाने में पसीने चुआने पर

 

और रहा जाए स्वस्थ

 

जरूरत से ज्यादा खाते – पीते हुए

 

जीते हुए आत्मस्थ

 

वक्त के साथ बेखौफ बहा जाए

 

 

दूसरा नमूना है ऐसा

 

कि समाज विज्ञानियों को रखने पड़े हैं

 

रूमाल अपनी – अपनी नाक पर

 

रखने पड़े हैं आंखों पर चश्मे

 

क्योंकि इसके मटमैले रंग को

 

खुली आँखों से देखना खतरनाक है

 

 

उनका कहना है कि

 

यह पसीना

 

जरूर किसी ऐसे जिस्म का है

 

जो धूप में तपती – पिघलती

 

कलकत्ते ( सिटी आफ ज्वाय ) की

 

कोलतारी रोड पर हाँफते हुए

 

बाँहों के बल रिक्शा खींचते

 

दौड़ रहा है अभी भी सरपट

 

पीछे इत्मीनान से पसरकर बैठे

 

एक आदमी को

 

जिमखाने से घर पहुँचाने के लिए

 

 

समाज- विज्ञानियों का

 

यह भी कहना है

 

कि पसीने की आणविक संरचना से

 

नहीं जाना जा सकता

 

पसीने का समाजशास्त्रीय रहस्य

 

 

क्योंकि पसीने की आणविक संरचना एक है

 

उसकी गंध और उसका रंग है

 

एक दूसरे से बिल्कुल अलग

 

 

उनका कहना है

 

यह फर्क होता है इसलिए

 

कि पसीने को चुआना और पसीने का चूना

 

दो अलग – अलग समाजशास्त्रीय बातें हैं

 

जिन्हें समझने के पहले

 

यह देखना आवश्यक है

 

कि चमड़ी किसकी है

 

वातानुकूलित कार में बैठ

 

पेट – क्लिनिक जाते हुए किसी डाॅगी की

 

या हल खींचते बैलों की !

 

  ©दिलीप दर्श, गोवा  

 

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