लेखक की कलम से
वह जिंदा तो है पर जीता कहाँ है?
बहुत करीब था
दुनिया जीतने को
पर अपने आप से हार गया वह
जिस तरह हार जाता है
कोई बाजीगर दाँव जीवन का
यह जानते हुए भी कि
दाँव आखिरी हो सकता है/कभी भी।
लिखा है कवि बच्चन ने-
“कितने इसके तारे टूटे/ कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले/पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है!
जो बीत गई सो बात गई!”
मेरे बंधु..!
पर बात जाती कहाँ है?
वह नहीं जाती कहीं..!
वह तो लपेटती है मनुष्य को
जैसे मकड़ी लपेटती है जाले में शिकार
भंवर कश्ती को और लट्टू ऊन को।
दुनिया बहुत छोटी हो जाती है
जब कुदरत का हर उपमान
बन जाता है आइना
और दिखाई देती है
उस आइने में एक आकृति
सिर गायब है जिसका
पर तुम उसे
अपने कपड़ों से पहचान लेते हो।
तुम जीते जरूर हो
पर जादूगर के उस आदमी की तरह
जिसे दिखाता है वह टुकड़ों में जिंदा।
मेरे दोस्त…!
टुकड़ों में जिंदा तो रहते हैं
पर
जीते कहाँ हैं????