लेखक की कलम से

मां के रंगों से है होली …

 

कहने को तो सात रंग है,

फिर भी इनमें से कोई भी रंग,

मां के सिंदूर सा नहीं,

पांव में लगाए आलता सा नहीं,

माथे की बिंदिया सा नहीं,

जो सूरज की किरणों सी

चारों ओर इक अलग ही रंग बिखेरती हो,

हथेलियों की लाली सा नहीं,

न जाने सारे रंग कैसे समेट लाती हो,

रामायण की चौपाइयाँ,

राम रक्षा स्तोत्र या गीता से,

जीवन के असल रंगों से लड़ना सीखाती हो,

देवी को गुड़हल, कनैर

रोरी चंदन हल्दी अर्पित कर,

पूजा और त्यौहार के रंग से अवगत कराती हो,

सभी रंग मानो तुम में मिल जाते है,

सरस्वती, गंगा, यमुना सी पवित्र,

ममता के रंग हर होली में लेकर आती हो,

सरसों का उबटन बना,

आज भी बुकवा लगाकर,

होलिका दहन में समाहित करती हो,

गुजिया, शक्करपारे, गुलाब जामुन बनाकर,

रिश्तों में मिठास घोल जाती हो,

न जाने कैसे रोप लेती हो होली के रंग सारे ?

मां तुम परमपराओं की अनूठी होली सजाती हो,

गुलाल से अनुराग का रंग भर जाती हो।

 

©अंशिता दुबे, लंदन                      

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