लेखक की कलम से

बुनियादी स्तर की विसंगातियों पर बात करती झुकती पलकों की चीख …

“झुकती पलकों की चीख “डॉ. अभिषेक कुमार की द्वितीय काव्य संग्रह है। जिसमें लघु एवं दीर्घ कुल मिलाकर 70 कविताओं का संग्रह है। जो हर एक कविता की एक-एक लाइन संवेदना से परिपूर्ण और सामाजिक राजनीतिक आर्थिक यानी बुनियादी स्तर की विसंगतियां को बखूबी से वर्णन किया है। एक कवि हमेशा अपने कविता के माध्यम से सामाजिक बदलाव की उम्मीद रखता है लेकिन क्या ऐसा हो पाता है। यही उस कवि के उत्तरदायित्वबोध है।

डॉ. अभिषेक की कविता ऐसे समाज के बदलाव की बात करती है। जहां पर अभी भी भूखे पेट सोने वाले हैं। जैसे कि उन्होंने लिखा है कि धरती और पेट दोनों के बनावट की समानता एक है। ये अपनी कविता के माध्यम से ये बताने का प्रयास कर रहे की एक भूखा व्यक्ति अपनी भूख मिटाने के लिए विध्वंसक और एक नदी के शांत जल के समान हो जाता है भूख की वजह से।

सच तो यह है कि एक भूखा व्यक्ति जो भूख से तड़प रहा है इससे ज्यादा क्या कर सकता है? गांधीजी कहते हैं कि दुनिया में ऐसे लोग हैं जो इतने भूखे हैं कि भगवान उन्हें किसी और रूप में नहीं दिखा सकता शिवाय रोटी के।

इस काव्य संग्रह में मेरे हृदय अंस्थल को उद्वेलित करने वाली कविता है “यह धरती किसकी है”? सबसे ज्यादा प्रभावित कि, हमको उम्मीद है हर कोई इस कविता की सवेदना को जरूर समझेगा। जिस देश में अधिकांश लोग ग्रामीण और जो देश प्रचीन काल से “किसानों का देश ” जैसी उपमा से सम्बबोधित किया गया हो आज उसी के देश उसकी क्या हालात है, आज यह अधूरा सा लगने लगा है।

आज किसान की हालात दिनों दिन बिगड़ती जा रही है और आत्महत्या जैसे घटनाओं को अंजाम देने के लिए विवश हो रहा है। युवा कवि अभिषेक ने स्पष्ट कर दिया है। अपने काव्य में कि यह धरती का असली मालिक वह है किसान ना कि कोई संत फकीर और ना ही राम रहीम सच में जो सभी के अन्नदाता हो वही उसका वास्तविक मालिक है लेकिन आज ये बाते संदेह के दायरे में है, जालिमनों ने जबरन किसानों की जमीन हड़प लिया और किसान बेचारे अपनी आवाज तक नहीं उठा पाते हैं।

ऐसा कब तक चलेगा ? ऐसा क्यों किया जा रहा है? कोई उपाय क्यों नहीं निकाला जा रहा है? इन्हीं तमाम मुद्दों पर, आज के युग के सामने बड़ा प्रश्न खड़ी करते हैं। हिंसा-अहिंसा की बहस के परे ज्यादातर यह काव्य संग्रह उन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तहे में जाकर के पड़ताल करती हैं और पाती है कि आज जो वैश्वीकरण का दौर है, जिसमें विकास की अवधारणा को बढ़ावा दिया जा रहा है लेकिन यही विकासवादी परिकल्पनाअधूरी रह जाती है। जब तक ग्रामीण समाज, पिछड़ी जनता, परेशान किसान की आधारभूत संरचना पूर्ण नहीं किया जाता है और विकासवादी परिकल्पना के साथ इन्हें नही जोड़ा जाता है तब तक यह विकासवादी कल्पना को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। अपने काव्य के जरिए राजनीति में हो रहे वंशवाद, भाई भतीजावाद को सन्देश देने का प्रयास किया है।

कुछ कविताएं है जो अपने आप में प्रश्न करतीं हैं जैसे एक जिंदा लाश, छल रहे हो किसको, चंद सवाल, ये कैसे आजादी, इन्हें आशा है कि सायद कभी उत्तर मिलेगा।

अंत कविता में एक आम आदमी जो दिन-रात संघर्ष करता है और अपनी इच्छा के अनुरूप सब कुछ ठीक करना चाहता है लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है। जिंदगी में संघर्ष ही लक्ष्य के नजदीक लाती है, जैसे कहा भी गया है संघर्ष ही जीवन है। खेत-खलिहान से लेकर धार्मिक, राजनितिक, आर्थिक स्थिति, आम आदमी का जीवन, सत्ता के प्यासे शहंशाह के सामने अपने प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास किया गया है।

ऐसे काव्य को हर किसी को पढ़ने की जरूरत है आज के युग में, बहुत ही विचारोत्तेजक और हृदयस्पर्शी कविताओं का वर्णन किया है।

पुस्तक परिचय- झुकती पलकों की चीख (काव्य संग्रह)

लेखक- डॉ. अभिषेक कुमार

मूल्य- 200 रुपये

ग्राम+ पोस्ट -सदांनदपुर, थाना बलिया, जिला- बेगूसराय बिहार।

©अजय प्रताप तिवारी चंचल, इलाहाबाद

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