लेखक की कलम से

एक बुरा ख़्वाब …

 

जा रही थी स्कूल से घर को इक दिन अकेली ,

सँग ना थी कोई मेरी सहेली ।

इक वहशी जानवार था खड़ा रस्ते पे ,

आ धर दबोचा  मुझे यूँ जैसे बाज दबोचे किसी चिड़िया को,

रोइ ,गिड़गिड़ाई, हथ जोड़े ,लाख मिन्नते मनाई,

ना माना वहशी दरिन्दा, ना छोड़ी मेरी कलाई ।

तोड़ के रख दिया यूँ मुझको, जैसे तोड़े मासूम कली कोई ।

बिखर गई मै, टूट गई मैं ,सोचा अपना आपा खत्म कर दूँ ,

लेकिन फिर मन से इक आवाज़ ये  आई,

आज अगर तु भी मर गई तो कल कोई और कली कभी खिल नही पाएगी ।

लड़ना होगा तुझे उनके लिए, भूलना होगा अपने दर्द को समझ के इक बुरा सपना ।

झट से उठ के कसी कमर जो , चँडी बन के निकली फिर मैं,

आवाज़ उठाई, शोर मचाया, पकड़ के उस दरिन्दे की गर्दन, वही पे उसको मार गिराया ।

समझ के इक बूरा ख्वाब मैने अपना कदम आगे बढ़ाया ,

और जीवन सफर अपना  सुहाना बनाया ।

 

  ©प्रेम बजाज, यमुनानगर  

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