लेखक की कलम से

कब आएगी अपनी भाषा? हिन्दी में लिखने से कद छोटा हो जाएगा?

समसामयिक

इस बार भी #valleyofwords वालों ने वही गलती करीं।  वैली ऑफ वर्ड्स यानी शब्दों की घाटी, अब भला भारत में शब्दों की घाटी का आयोजन हो और बैनर अंग्रेजी में! वो भी तब जब यह देश विनोबा भावे जी की 125वीं वर्षगाँठ मनाने की तैयारी कर रहा है। जो हिंदी और देवनागरी लिपि के समर्थक थे। पर इनके लिए न  हिंदी का महत्व है न संविधान का।  यूँ तो हर चीज में संविधान का हवाला देंगे।  पर भाषाई असमानता पर मौन?  रोज ही बच्चे पीस रहे है अंग्रेजी की वजह से। पर किसी में हिम्मत नहीं । हम जड़ हो चुके है। हम अपनी भाषाओं को कब महत्व देंगे।

हर आयोजन में विशेष रूप से निजी आयोजनों में हिंदी एवं देशी भाषाओं की अवमानना की जाती है। पिछली बार भी की थी, इस बार भी, हर बार करेंगे । क्योंकि अंग्रेजी से सम्मान जो बढ़ता है।   ऐसे लोग गांधीजी के भक्त बनेंगे, सरकारों को कोसेगें।  सरकारें भाषा के मामले में बहुत कुछ करती है। पर हम? कूंद हो चुके है।

हर बड़े आयोजन में अंग्रेजी। कब आएगी अपनी भाषाएं। # जेएनयू की 30 से 300 पर राजनीतिक विरोध करने वालो, अन्य विषयों पर हंगामा बरपाने वालों को इस देश में शिक्षा में व्याप्त भाषिक असमानता नहीं दिखतीं । टीवी पर कार्यक्रमों में पश्चिमी छाप नहीं दिखतीं । हमारी संस्कृति, संस्कार सब कुछ दकियानूसी हैं?  यह तस्वीर पिछले साल की है, पिछ्ली बार भी मैंने लिखा था। विरोध भी किया था। हर बार लिखेंगे।

डॉ. साकेत सहाय
नई दिल्ली

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