लेखक की कलम से

मानवता …

 

जिंदगी की राह पर

दे हवा सँवार कर

चल रहा हो जो

पथिक

कि मानवता ही धर्म है।

 

प्रभात का तू आसकर

तम को भी तू प्यार कर

जलता बुझता है दिया

कि मानवता ही धर्म है।

 

बुझे जब अंगार बन मौत का खुमार बन

खिल रहा सिंगार कर कि मानवता ही धर्म है।

 

साँस को गुहारकर साज के सितार पर मौन को पुकार कर

कि मानवता  ही धर्म है।

 

गीत को मल्हारकर

दर्द को भी  दाहकर

प्रेम भी निसारकर

कि मानवता ही धर्म है।

 

हर नजर निगाह पर आँख को दुलार कर आरती उतार कर आँसू बूँद पोंछकर कि मानवता ही धर्म है।

 

धूल कण जो उड़ रहा

बुझते  सपने चुन रहा

कंकड़ पथ बुहारकर  कि  मानवता ही धर्म है।

 

आदमी हो तुम उठो अधर्म की निनाद पर शेर जस दहाड़ कर  कि मानवता ही धर्म है।

 

स्वर उठे कि मान पर

चमन को तू सलाम कर

मनुजता  का गान कर

कि मानवता ही धर्म है।

 

 

    ©बबिता सिंह, हाजीपुर, बिहार    

परिचय :- पेशे से शिक्षिका साहित्य में बिहार श्री रत्न पुरस्कार, पाटिलापु्त्र पुरस्कार, ढाई सौ से अधिक रचनाओं का स्थानीय व पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन।

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