लेखक की कलम से
मैं दीपक हूँ, देखा है …
अदम्य गगन में, बैठा सूरज
आलौकिक, संदेश देता
समर्पण की, नदियाँ भर
नि:स्वार्थ आलोक, बिखराता है ||
दीपक हूँ, मैं शुभ दिवाली
मुझसे सजती, आरती थाली
जल-जल कर भी, जगमग करता
हंसना सूरज से, सीखा है ||
दीपशिखा, आकर मुझ में
शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध
उजियारे भर, करती नृत्य
मेरे नेत्र बन, वो रहती है ||
ताप ज्वाला से, जलता तन
श्रद्धा से साधना, करता मन
सारी संसृति में, मैं प्रेम पुनीत
तारों की झिलमिल मुझ में है ||
दिवा-निशा की, संधि वेला में
मैं मंदिर-मंदिर में, श्रद्धा दिप्त
हर प्रांगण में, प्रकाश पुंज भर
मुझ में सूरज सा, समर्पण है ||
©इली मिश्रा, नई दिल्ली