लेखक की कलम से
क्यों होता है ऐसा …
कोई जिन्दगी से इतना भी ख़फा कैसे हो जाता है, कि इतना अमूल्य जीवन स्वयं ही त्याग दे, और पल-भर में कर ले अपनी जीवन लीला समाप्त …
कोई किसी बात को लेकर इतना भी चिंतित कैसे हो सकता है, कि एक बात न पूरी होने पर, कर दे अपने सारे स्वप्नों का अंत …
कोई कैसे छुपा लेता है अपनी हँसी के पीछे के गम को, कि किसी को आभास भी नहीं होने देता अपने अंतर में चल रहे अंतरद्वन्द्व का, और अंदर ही अंदर एक दिन खत्म हो जाता है …
कोई कैसे बन सकता है इतना भी व्यक्तिगत, कि भूल जाता है उसके पीछे भी कई लोग हैं जिनका जीवन मात्र उसी से है, और भुला देता है अपने दर्द के लिए सभी के दर्द को …
©डॉ. दीपक, विभागाध्यक्ष हिंदी, एसजीजीएस कॉलेज, माहिलपुर पंजाब