लेखक की कलम से
चौक पर चाय…
ग़ज़ल
इक लगन तिरे शहर में जाने की लगी हुई थी,
आज जा के देखा मुहब्बत कितनी बची हुई थी।
आपसे जहाँ बात फिर मिलने की कभी हुई थी,
आज मैं देखा गर्द उन वादों पर जमी हुई थी।
लग रही थी हर रहगुज़र वीराँ हम जहाँ मिले थे,
सिर्फ़ ख़ूब-रू एक याद-ए-माज़ी सजी हुई थी।
सोचता हूँ तक़दीर कितनी थी मेहरबान हम पर,
क्यूँ मगर ये तक़दीर अपनी उस दिन क़सी हुई थी।
आपको भी आ कर ज़रूरी था एक बार मिलना,
चौक पर वही चाय मन-भावन भी बनी हुई थी।
©अमित राज श्रीवास्तव, सीतामढ़ी (बिहार)