अकड़ …
(लघु कथा)
मैंने उससे पूछा -“तुम में इतनी अकड़ का क्या कारण है ?
वह अकड़ गया। ज़ोर -ज़ोर से बोलने लगा। मैंने फिर पूछा -“ इतना पढ़े -लिखे भी नहीं हो कि तुम्हें अपने ज्ञान का घमण्ड है। ”
उसने मुझे ऐसे देखा जैसे कच्चा खा जाएगा और मेरे अवगुण गिनाने लगा।
मैंने भी ढीठ बन कर पूछा -“जीवन में कोई मुक़ाम भी हासिल नहीं किया कि उसका ही अहंकार है तुम्हें। ”
वह बहुत भड़का। उसने मुझसे पूछा -“कौन कहता है कि मुझमें अकड़ है ?”
मैंने कहा -“ सभी कहते हैं कि तुम्हारी गर्दन में कोई डंडा अड़ा है। झुकना तो तुम्हें आता ही नहीं। तुम हर किसी से लड़ पड़ते हो। ज़ोर -ज़ोर से बोलने का अर्थ यह नहीं कि तुम सही हो। ”
उसका बस चलता तो मुझे जान से मार डालता। वह बहुत बोल -बोल कर जब शांत हुआ तो मैंने फिर पूछा -“इतनी धन -सम्पत्ति भी नहीं है तुम्हारे पास कि तुम अकड़ते फिरो। ”
वह अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ -“ जानते हो मेरे बाप के पास अरबों की सम्पत्ति है और उसके बाद सब मेरी है। जानते क्या हो तुम मेरे बारे में ?
मैं भी उठ खड़ी हुई। मैंने चलते -चलते मुस्कुराते हुए कहा -“अच्छा ! तो इस बात की अकड़ है तुममें ?
इतना कहकर मैं वहाँ से चली आई। बस मैं उसकी और अकड़ नहीं देखना चाहती थी।
©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़