लेखक की कलम से

सुबह-सुबह बूंदा-बांदी मुबारक…

तेरी नाराजगी जेहन में ऐसे बस गई

फरियाद में फरमान की ही रस रह गई

छोड़ो भी ये ज़िद्द की मान जाओ जल्दी से

रूठे हुए हैं हम भी यहां यही कसक रह गई

वक्त के एहसास का तकाजा यही है

मानेंगे न बिना हक लिए तेरे दर पर आ गई!

©लता प्रासर, पटना, बिहार

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