लेखक की कलम से

कह दो घड़ी की सुई से …

से कोई उल्टी घूम जाए ले आए वो खुशियों की घड़ीयाँ वापस सारी।

उस वक्त की सौगात दे दे जिस में खेलती थी हंसी, मुखौटे के पीछे दबी मुक्त मुस्कान को तरसती है कायनात सारी।

दहलीज़ के भीतर दम घुटता है ए वक्त तू थम जा अभी, जाने दे दर्द की गतिविधियों को आगे बैठ मेरे पास तू दो घड़ी।

लगती थी बजारों में मानवीय कतारें आज मरघट के आगे लगी है, हर दूसरे घर की खिड़की पर क्यूँ मौत है टंगी।

खा गई महामारी या इंसानी सोच की है गलती सारी, देखी ना सोची कभी क्यूँ ऐसी डरावनी आहट है छाई।

बदल तू फ़ितरत ए इंसान ले डूबेगी तुझे अपने ही कर्मों की कलाकारी, आत्मखोज कर मायने तो दे इंसानी।

काल को बदल ए महाकाल इम्तिहान कि बाकी है अभी कितनी घड़ी, बख़्श दो महज़ इंसान है हम कहाँ से लाएं इतना सब्र तुम्हारी तरह देवता तो नहीं।

©भावना जे. ठाकर                     

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