लेखक की कलम से

क्यूं दर्द होता है …

 

क्यूं कभी कोई दर्द उभर आता है, क्यूं कोई ग़म फिर से सताता है ।

क्यूं आंख भर आती है, क्यूं दिल में ग़म की गहराई छाती है ।

क्यूं रिश्तो की गहराई को ईँचो में नापा जाता है, क्यूं प्यार को तराज़ु में तोला जाता है ।

क्यूं सपनों से अपने ही जगाते हैं, क्यूं कोई सपना प्यारा लगता है ।

क्यूं फूल भी कभी पत्थर से लगते हैं, क्यूं कोई बेगाना भी अपना लगता है ।

क्यूं पल में मन से मन मिल जाते हैं, क्यूं पल में पराए अपने हो जाते है ।

क्यूं कभी ग़ैरो की तकलीफ भी अपनी लगती है, क्यूं कभी किसी के लिए हर तकलीफ हम सहते है ।

क्यूं कभी दर्द में भी दर्द का एहसास नहीं होता, क्यूं कभी अपनी ही परछाई से भी डर लगता है ।

क्यूं कभी मन पे बादल छाते हैं, क्यूं कभी मन मयूरा नाचने लगता है ।

क्या है ये दर्द …..अपना भी है, बेगाना भी है, असहनीय भी है, और प्यारा भी है, हम सभी तो इन्ही दर्दों के साथी हैं…….

©प्रेम बजाज, यमुनानगर

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