लेखक की कलम से

चार चांद लगाता ‘चांद’ …

 

मचलती सांझ की लिपटी गोद से,
हौले से झांकता हुआ शीतल सा चांद,
घनघोर अंधेरे को रातरानी बनाकर,
धरती को सुलाकर निकलता हुआ चांद।

काजल नैनों में भरपूर लगाकर,
निखारता संवारता रहता खुद को चांद,
अनगिनत तारों की बारात ओढ़कर,
पलकों से निंदिया चुराता रहता चांद।

संग आंचल की थपकी पीठ पर,
बचपन की लोरियां में सुलाता चांद,
कभी नानी दादी की कहानियों से,
बहलाता फुसलाता मन ललचाता चांद।

सायं सायं करती अंधियारी रातों में,
तन्हाई के आलम में उतरता चांद,
झंकझोर एहसासों पर हस्ताक्षर करके,
कभी पन्नों पर उतर जाता शायरी बन चांद।

भागती दौड़ती सी जिंदगी को,
फुर्सत के खूबसूरत लम्हें देता चांद,
जुर्माना निगाहों पर तो लग भी जाता,
दीदार ए पाबंदी खुद पे नहीं लगाता चांद।

हजारों प्रकाशवर्ष की गति से,
भावनाओं को विचलित करता चांद,
रात की बेला की विदाई कराकर,
सवेरे की ऊर्जा के सपने दिखाता चादं।

प्रेम एकता समानता का रंग सजाकर,
ईद करवाचौथ का उत्सव लाता चांद,
दिलों को मिलाकर सभी के,
मानवता की मिसाल दोहराता चांद।

चितचोर बनकर दौड़ लगाता,
न जाने कितनी उपमा लाता चांद,
ब्रह्मांड से धरती तक अल्फाजों में भी,
हर जगह चार चांद लगाता ‘चांद’।

©अंशिता दुबे, लंदन                      

Back to top button