लेखक की कलम से

अनदेखे रिश्ते….एक अभिव्यक्ति …

 

किसी की भी फिक्र करने के लिए किस भी रिश्ते की ज़रूरत नही होती और नही किसी संबोधन की…कुछ रिश्ते बगैर सम्बोधित किए  भी ताउम्र चलते हैं। उनमें ग़ज़ब का विश्वास स्नेह और प्रेम होता है।शायद वे एक दूसरे से ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीदें नही करते।जहाँ उम्मीदें होती है वही रिश्ते कमज़ोर हो जाते हैं।रिश्तों को बांधिए जकडीए नही।क्योंकि अत्यधिक दबाव हर रिश्तों  को कसमसाने को मजबूर कर देता है।नतीजा एक दूसरे से पलायन।

सिर्फ स्नेह और आदर यह दो मुख्य आधार होने चाहिए।थोड़े  स्वतंत्रत  थोड़ा स्पेस,और   स्वनिर्णय लेने की आज़ादी बेहद ज़रूरी है।हर रिश्तो की अपनी इच्छाएं होती है क्योंकि  प्रत्येक रिश्तो में  एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से जुड़ा होता है।जब तक एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की इज्ज़त नही  करेगा

रिश्तो का आधार या नींव वही ध्वस्त हो जाएगी।

अपने रिश्ते बेशक वैयक्तिक होते हैं तो कुछ सामाजिक

और जो   इन सबसे परे होते हैं वे भी उतने ही ज़रूरी होते हैं। जिसे लगाव कहते हैं। और यही लगाव आपको तथाकथित रिश्तों की फिक्र करने को मजबूर  करता है जो सशक्त होते हैं।अपने भावों से और   भावनाओं में भी।इसलिए हर रिश्ते का मान रखें और उनकी फिक्र करे…!!

 

एक प्रश्न???

 

एक ऐसा संबोधन जिसमे  बंदिश न हों किसी चीज का डर न हो रिश्ते खोने का…! ऐसा कौनसा रिश्ता हो सकता हैं?

 

 

©सुरेखा अग्रवाल, लखनऊ                                              

Back to top button