लेखक की कलम से

लावारिस …

 

झाड़ी के तम से निकली

मैं एक अबोध सी बाला हूं ।

तिरस्कार के लौ से जन्मी

मैं एक जलती ज्वाला हूं । ।

 

किसी के प्रेम-प्रसंगों की

कसमें-वादों की हूं पहचान ।

मुझको भी जीने दो यारों

मैं हूं एक नन्ही सी जान ।

 

जाने क्या मजबूरी थी

उसने मुझको छोड़ दिया ।

दिल से लगाने से पहले

दिल से नाता तोड़ दिया ।

 

अब समाज के लिए तो मैं

बस एक कड़वी सी हाला हूं ।

तिरस्कार के लौ से जन्मी ,

मैं एक जलती ज्वाला हूं ।

झाड़ी के तम से निकली

मैं एक अबोध सी बाल हूं ।

 

कोई नहीं इस जहाँ में मेरा

किसके पास मैं जाऊँ ।

मां की ममता पिता की छाया

ढूंढ कहाँ से लाऊँ ।

 

किस पर करूँ एतबार यहाँ मैं

हर रिश्ते में छली गई ।

मुझको जगत में छोड़ अकेली

मां तू कहाँ पे चली गई ।

 

नासूर बन चुका ज़ख्म ये मेरा

मैं एक जलती छाला हूं ।

तिरस्कार के लौ से जन्मी

मैं एक जलती ज्वाला हूं ।

 

झाड़ी के तम से निकली

मैं एक अबोध सी बाला हूँ।

तिरस्कार के लौ से जन्मी

मैं एक जलती ज्वाला हूं ।

 

  ©केएम त्रिपाठी, प्राचार्य, मुजफ्फरपुर, बिहार   

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