मैं किताब हूँ …
अब किताबें झांकती हैं
बंद अलमारी के शीशे से
बड़ी हसरत पालती हैं
कि मुलाकात हो सके।
अब तो महीनों बात ही नहीं होती
जब शामें कटा करती थी हम से
वो शामें अब कट जाती हैं कंप्यूटर से
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें।
अब अलमारी की कैद में किताबें
नानी दादी सुनाती थी क़िस्से किताबी
अब वो नींद कहां आती हैं
बिन कहानी किस्से।
बहुत कुछ समेटे थी पन्नो में किताबे
अब सिसकी में रह गए किस्से कहानी
जो उंगलियां पलटती थी उनके पन्ने
अब कम्प्यूटर पर चलती हैं फिसल फिसल के।
वो जमाना था जब रख किताब सीने पे
कट जाती थी सारी रात सो सो करके
और प्रेमी के दिये वो पत्र व फूलों का राज
अक्सर किताबें ही रखती थी दबा कर।
वो किताबें गिराने उठाने में ही
बन जाते थे कई प्यारे रिश्ते
अब बंद अलमारी के शीशे से
झांकती हैं किताबें बस झांकती।
‘टीस किताब की’
©डॉ मंजु सैनी, गाज़ियाबाद