लेखक की कलम से
सवाल खत्म ना होते …
वो गरम फुलके खिलाती रही
सदा मुस्कुराती रही
और वो कहके गया
तुम्हें इसके अलावा
आता ही क्या हैं… ?
वो हर कोना चमकती रही
मकान को घर बनाती रही
हर चीज हाथ में थमाती रही
वो फिर कहता रहा
कुछ और भी किया करो…?
वो बच्चें खिलाती रही
संस्कार सिखाती रही
घर का कोना कोना
महकाती रही
फिर भी सुना उसने
काश कमाती होती….?
बस एक दिन वो जाग गई
सब कुछ बिसरा गई
निकल गई खुद की खोज में
नहीं उलझी किसी की टोह में
घर बिखर सा गया
बच्चें बेअसर हो गए
कोने कूड़े से भर गए
पर नोटों के ढेर लग गए
अब वो ख़ामोश हो गया
वो खिलखिलाने लगी
अपने पंख फ़ैलाने लगी
फिर एक नया सवाल
घर भी देख लिया करो……!!!!
राष्ट्रीय न्याय मंच भारत
एक सोच जो हमने ही विकसित कर डाली है।
यह किस और जा रहें हैं हम। यह कैसी आधुनिकता है।
©आरसी शर्मा, पांचाल