लेखक की कलम से

सम्हलकर चलिए हल्के पांव…

 

इस शहर का मौसम कितना खुशगवार है।

वो आदमी गलत- फहमियों का शिकार है।।

 

ये काले उमड़ते बादल आके चले जाते हैं।

सूखी ज़मीन को ठगना इनका रोज़गार है।।

 

खाली पेट भी चेहरा हँसता हुआ दिखता है।

ये जम्हूरियत भी क्या मशहूर कलाकार है।।

 

जगमगाती रोशनियों में डूबी रहती हैं रातें।

गौर से देखो ज़रा, हर सुबह कैसा बीमार है।।

 

आसमाँ में उड़ने की चाह में कहाँ आ पहुँचे।

हर साँस किसी अनजाने डर में गिरफ्तार है।।

 

जिस इंसान से मिलिए, ज़रा गौर से मिलिए।

हाथ मिला के घर जलाने का यहॉं रिवाज़ है।।

©सलिल सरोज, कार्यकारी अधिकारी, लोकसभा सचिवालय, नई दिल्ली

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