लेखक की कलम से

राजनीति…

मेरे जीवन में कई खतरे हैं

और कईयों के लिए मैं ख़तरा हूँ

मैं ख़तरा हूँ उन मकड़ियों के लिए

जो बनातीं हैं घर के कोने में सबसे ऊंचाई पर जाला

कोने में दुबके हुए खुशी – खुशी करना चाहती जीवनयापन

पर आदिवासियों के बीहड़ जंगलों में सड़क बनाने की तर्ज़ पर

उन्हें मुख्यधारा में लाने के नाम पर

मैं करती हूँ उन्हें कोने से बेदख़ल

लाती हूँ उन्हें छत से जमीन पर

अब वे न तो यहाँ की हैं न वहाँ कीं

बस हैं मेरे पैरों तले

अब न वे आदम है न ही आदिवासी !

मैं ख़तरा हूँ उन अंगूठे भर के तिलचट्टों के लिए

जो छुपे रहते हैं अंधेरों में

अनछुए पहलुओं को जो कुरेदते हैं रात भर

टहलते रात के शहंशाह बन सुविधाओं के घर में

बढ़ाते अंधेरे में अपनी अनपढ़ आबादी

मालूम है उन्हें उजाले में उनकी जीवटता को न स्वीकार

कर पायेगा सभ्य मनुष्य

कि पृथ्वी में उजाले के संग ही हुआ था

अंधेरे का भी जन्म

और बिना उजाले के भी उन्होंने जिया है एक खूबसूरत जीवन

मैं ख़तरा हूँ उन दीमकों के लिए भी

जो चट कर रहें हैं धीमे – धीमे सभी धर्मग्रंथ

जो बना रहें हैं अंततः सबका ईश्वर, ख़ुदा, मालिक एक

जो कर रहें हैं सालों साल बंद दकियानूसी खिड़कियों-दरवाजों को भंगुर

लगा रहें उनमें बारीकी सी सेंध

धर्म – अधर्म, स्वर्ग – नरक, जन्नत – दोज़ख, हैवन – हैल

के उलझनों से परे

जो हैं हरदम प्रकृति के संग – निःसंग !

©विशाखा मुलमुले, पुणे, महाराष्ट्र

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