लेखक की कलम से

नीला आकाश …

नीला आकाश

 रुई के फाए जैसा  

नरम अहसास देता

 झांकता सूरज रुई के फाए 

के बीच से फेकता गरम सांसे

 सुलगती जमीं पर चादर ओढ़े

सपनों के मदहोश में

 मशगूल सोए जा रहे

लिपटती हवा की ठंडी छुवन,

अहसास देती अपनेपन का        

रेतीली जमीं पर

 टपकते गोले बर्फीले  

आंसूओं की भांति

 बिखेर देते एक ही पल में

 संजोए सपनों को

 पिघलते बर्फ की भांति

गदडी में लिपटे सो रहे

 नगें बदन कंपकपातीं हडि्डयां बूढ़ापे की

चीथड़ों में धरे मांस के लोथड़े को

जो उनके बुढ़ापे की लाठी है

  कोई दीवार नहीं जो रोके

बजते हुए दांतों को

दे गर्म हवा अग्नि की तरह

उनकी कंपकपाती हडि्डयों को

 आवज को एक ही पल में

धरासाई कर सकती है ये हवा

 मगर है जज्बा बूढ़ी हडि्डयों में

अपने लोथड़े में जान भरने का

 छुपा लेगा अपना दर्द 

उस बचपन को बचाने की खातिर

  मिटा लेगा अपनी भूख किसी तरह उसके लिये

 क्या जानेगा उसके अहसास को

बड़े होकर ये लोथड़ा

  कि जीवित रखा है उसने

अपनी हडि्डयों का अलाव

 जलाकर गर्म चादर बना कर

उठाई है उस मांद को 

  कर दिया पहाड़ जैसा उसे

एक दिन ये देखने को

   तू अब क्या करेगा बुढ़ापे में 

मेरी उर्म है खुशी से रहने की

 उसका क्या कसूर 

उसने देखा नहीं जलती हुई हडि्डयों को

   जब जलेगी अपने मांदें के लिये

ये आकाश भी कितना उजाला देता है

 एक पल के लिये

एक पल में डुबो देता अंधकार में

   सपनों को चूर चूर कर के।

और फिर एक रात आती है 

नये सपने बुनने की …

©शिखा सिंह, फर्रुखाबाद, यूपी

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