लेखक की कलम से

कमलापतिजी को तक राजीव ने नहीं बख्शा था …

पुरानी कहावत है ‘इतिहास स्वयं को दुहराता है’| नये दौर में भी, पुरानी घटना की भांति ही|

 

यह परिप्रेक्ष्य संपादकाचार्य पं. कमलापति त्रिपाठी (आज उनकी 105 वीं जयंती) से जुड़ा है| पहली घटना पैंतीस वर्ष पुरानी है और ताजा वाकया पिछले पखवाड़े वाला| दोनों के कारण हू-ब-हू एक जैसे| मंच तो एक ही| बस पात्र भिन्न रहे|

 

पहला सन्दर्भ है जून 1986 का| नए कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गाँधी को कार्यकारी अध्यक्ष पं. कमलापति त्रिपाठी ने पत्र लिखा कि पार्टी की हालत में तात्कालिक सुधार हो| उन्हें आक्रोश था कि इंदिरा-अनुयायियों की घोर उपेक्षा हो रही है| चापलूसों की जमात कमा रही है, इत्यादि| मुद्दा तब भी वही था जो गत माह ‘गुलाम-आजाद नबी’ और उनके बाईस सहचरों (G-23) ने उठाया था| मगर उनके साथ सोनिया गाँधी तो नर्म रहीं| त्रिपाठी के खिलाफ राजीव के साथियों (पी.वी. नरसिम्हा राव, अर्जुन सिंह आदि) ने सख्त कदम उठाने का आग्रह किया था| इस अस्सी-वर्षीय स्वाधीनता सेनानी को हकालने की बात सुझाई| राजीव गाँधी ने पण्डित जी को केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया| मगर अपने कठोर मानस का रस चखा दिया|

 

ठीक उसी माह प्रणव मुखर्जी को अपने काबीना से निकाला| कांग्रेस से भी निष्कासित कर डाला| प्रणवदा का गुनाह बस इतना था कि इंदिरा गाँधी की हत्या के दिन (31 अक्टूबर 1984) बंगाल से दिल्ली लौटते समय जहाज में उन्होंने कांग्रेस महामंत्री को याद दिलाया था कि जवाहरलाल नेहरु तथा लाल बहादुर शास्त्री के निधन पर वरिष्ठतम मंत्री गुलजारीलाल नन्दा को कार्यवाहक प्रधान मंत्री बनाया गया था| बाद में संसदीय दल में शास्त्री जी और इंदिरा गाँधी चुनी गयीं थीं| इस चर्चा पर लोगों ने युवा नेता को भरमा दिया कि प्रणव बाबू महत्वाकांक्षी हो गए हैं| जिसका परिणाम हुआ कि 1986 में त्रिपाठी जी तो बच निकले थे| पर उनके दिल में प्रणवदा पर हुई कार्यवाही से सिहरन पैदा कर दी गयी थी|

 

उस दौर के दण्डित कांग्रेसी (बाद में राष्ट्रपति) गत माह इहलोक से ही चले गए| ये दोनों ऐतिहासिक दौर (त्रिपाठी और गुलाम नबी) प्रणवदा ने देखे थे|

 

आज (गुरुवार 3 सितम्बर 2020) त्रिपाठी की जन्मगांठ पर स्मरण करते हुए हम श्रमजीवी पत्रकार उन्हें बृहस्पति सम आदर करते हैं|

 

त्रिपाठीजी जन्मे थे ऋषि पंचमी पर| हालाँकि आज है आश्विन कृष्ण प्रतिपदा| अर्थात ग्रेगेरियन कैलेंडर वाली तारीख| गुलाम भारत में त्रिपाठी ने संपादन कार्य शुरू किया था दैनिक “आज” से, फिर दैनिक “संसार” में रहे| तब उन्होंने पत्रकारिता की “प्रशिक्षण कला” पर किताब लिखी थी| अपूर्व थी|

 

स्वाधीनता आन्दोलन के दौर का उनका एक प्रसंग है|

 

महान संघर्षशील सोशलिस्ट जयप्रकाश नारायण पहले हजारीबाग जेल की दीवार फांदकर भागे थे| पकडे गए, छूटे, फिर गिरफ्तारी से बचने हेतु भूमिगत हो गए | शीघ्र ही अंग्रेजों की भारत से भागने की बेला आ गयी थी| संपादक कमलापति त्रिपाठी ने “संसार” में अत्यंत आकर्षक बैनर शीर्षक छापा :

 

“कहाँ हो जेपी ? ‘संसार’ तुम्हें दूंढ़ रहा है!”

 

मतलब था दुनिया से, और अपने दैनिक से भी|

 

जब वे काशी के अपने सहवासी बाबू सम्पूर्णानन्द की काबीना में सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री थे तो लखनऊ के  रायल होटल कार्यालय (आज का बापू भवन) में पूर्णतया पत्रकारिता का ही तेवर तथा कलेवर रचा था| बाबू भगवती शरण सिंह निदेशक थे| तब पंडित जी “त्रिपथगा” पत्रिका प्रकाशित करवाते थे| अपने किस्म का उत्कृष्ट साहित्यिक प्रकाशन था| भारत के अन्य राज्यों के सूचना निदेशालय की तुलना में लखनऊवाला काफी ऊँचाई पर था| पत्रकारों को राज्य की प्रगति से अवगत बहुधा पर्यटन द्वारा कराया जाता था| गुणात्मक लेखन को त्रिपाठी जी स्वयं अनुप्राणित करते थे| मानो प्रदेश शासन अखबारी दफ्तर हो, और सूचना मंत्री वहाँ पर प्रधान संपादक तथा निदेशक चीफ रिपोर्टर|

 

आगरा के स्वाधीनता सेनानी निडर दैनिक “सैनिक” के संपादक श्रीकृष्णदत्त पालीवाल को त्रिपाठी जी अपना गुरु मानते थे| हालाँकि एक सत्ता में और दूसरा प्रतिपक्ष में था|

 

हम पत्रकारों को नाज है कि त्रिपाठी जी हर दस्तावेज में अपना व्यवसाय “पत्रकारिता” ही लिखते थे, राजनीति कभी नहीं|

 

हमारे संगठन IFWJ से काशी पत्रकार संघ सम्बद्ध है| दैनिक ‘आज’ के सम्पादकीय लेखक दयानन्द जी बताते हैं कि इसके संस्थापक-अध्यक्ष पंडितजी (1940-43) रहे| संघ (यूनियन) की हीरक जयंती पर हमारे काशी के लोग यूनियन अध्यक्ष साथी डॉ. राममोहन पाठक के नेतृत्व में औरंगाबाद आवास पर त्रिपाठीजी का सम्मान करने गए| उन्हें प्रतीक चिन्ह कलम भेंट किया जिसे पंडित जी माथे से देर तक सटाए रखा और बोले, “पत्रकारों द्वारा यह सम्मान अतुलनीय है|” डॉ. पाठक के साथ मनोहर खाडिलकर, नंदलाल सिंह, रामानन्दपाल चौधरी, लक्ष्मीनाथ संड, दीनानाथ गुप्त आदि थे|

 

पंडित कमलापति त्रिपाठी द्वारा श्रेष्ठतम उपकार पत्रकारों के लिए किया गया था अगस्त 1980 में| तब यूपी वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन का 158-सदस्यीय प्रतिनिधि मण्डल लखनऊ से कोचीन (केरल) में IFWJ के उन्नीसवें अधिवेशन में शिरकत करने जा रहा था| इतने ढेर सारे यात्रियों को आरक्षण मिलना असम्भव था| तो तय हुआ कि अध्यक्ष स्व. सलाहुद्दीन उस्मान (पैट्रियट) तथा महासचिव स्व. कृष्णशंकर (पायोनियर) के नेतृत्व में हम लोग रेलमंत्री से उनके लखनऊ आवास (आज का भाजपा कार्यालय) पर मिलें| तत्काल पंडित जी ने कोचीन तक दो थ्री-टायर 72 बर्थवाली कोचें लगवा दीं| वापसी की यात्रा भी आराम से कटी|

 

रास्ते में चेन्नई राजभवन में (मेरे तिहाड़ जेल के साथी) राज्यपाल प्रभुदास पटवारी ने यूपी वालों का स्वागत कराया था| उस दल में हसीब सिद्दीकी, रवींद्र कुमार सिंह, मदन मोहन बहुगुणा, श्यामचरण काला, ठा. शीतला सिंह, विनय कृष्ण रस्तोगी, स्व. दुर्गेश नारायण शुक्ल (कानपूर दैनिक विश्वामित्र), निर्मल खत्री, के. बी. माथुर, ओसामा तल्हा, के. सी. खन्ना आदि थे|

 

अपने चिरपरिचित आसन (मोढ़ा) पर विराजे त्रिपाठी जी से उस मुलाकात में हम लोगों ने अच्छी खासी प्रेस कांफ्रेंस भी कर ली| आखिर हम सदा ड्यूटी पर रहते हैं, व्यवसायी पत्रकार जो ठहरे| तभी इंदिरा गाँधी दुबारा प्रधान मंत्री पद पर लौट आयी थीं, साथ ही कांग्रेस अध्यक्ष भी बन बैठीं|

 

अतः मेरा संदर्भित प्रश्न था : “पंडित जी ! राष्ट्रीय कांग्रेस के संविधान के अनुसार एक व्यक्ति दो पदों पर नहीं रह सकता है| इंदिरा गाँधी ने नियम विरुद्ध काम किया है ?”

 

इस पर अपनी काव्यमय शैली में वे बोले: “असाधारण परिस्थितियों में नियम बदले भी जा सकते हैं|”

 

फिर वे कुछ क्षण रुके और तपाक से बोले :“विक्रम ! तुम्हें भ्रम था कि मैं फंस जाऊंगा ? तुम्हारे बाप के साथ काम कर चुका हूँ|” सबने ठहाका लगाया|

 

यूपी के प्रतिनिधि मण्डल को रेलमंत्री द्वारा उपलब्ध यात्रा-सुविधा से बड़ी राहत हुई | कई प्रदेशों के प्रतिनिधि हमसे इर्ष्या करने लगे| कोचीन का भव्य अधिवेशन था| राष्ट्रीय प्रधान सचिव होने के नाते मैंने वार्षिक रपट पेश की| मैं पिछले अधिवेशन (1977, हैदराबाद) में नामित हुआ था| तभी इंदिरा सरकार ने न्यायमूर्ति के.के. मैथ्यू की अध्यक्षता में तीसरा प्रेस आयोग गठित किया था| स्व. इशरत अली सिद्दीकी (उर्दू दैनिक “कौमी आवाज” के) इसके सदस्य थे| दूसरे सदस्य (नवभारत टाइम्स के संपादक) स्व. राजेन्द्र माथुर के साथ वे IFWJ अधिवेशन में शरीक हुए थे| राजेंद्र माथुर जी बाद में IFWJ के श्रीनगर (कश्मीर) सम्मेलन (1986) में भी आये थे| उन्होंने IFWJ के दो सदस्यों की “नवभारत टाइम्स” तथा सांध्य टाइम्स” में बड़ी सहायता भी की थी|

 

उसी महीने “पालेकर अवार्ड” घोषित हुआ था, बहुत घटिया था| IFWJ के हजारों प्रतिनिधियों ने कोचीन की सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन किया था| हमारा नारा था : “पालेकर अवार्ड अरब्बिक कड्यु|” (अरब सागर में फेंको)| सभा में मेरा उद्बोधन हिंदी में हुआ| दसों हिंदीभाषी राज्यों से आये पत्रकारों ने तारीफ की| हिंदी, वह भी सुदूर केरल में ! तब तक, 1950 से 1980 तक, IFWJ की अधिकारिक भाषा अंग्रेजी ही थी|

 

इन रेल मंत्री के साथ मेरा एक निजी प्रकरण भी है|

 

इमरजेंसी में मुझे बंगलौर जेल ले जाने के साथ ही मेरी पत्नी डॉ. सुधा का बड़ौदा से रेगिस्तानी सिंध सीमावर्ती रेल अस्पताल में तबादला कर दिया गया| दिल्ली के कई संवाददाता अपने यूनियन अध्यक्ष (हिंदुस्तान टाइम्स के) पंडित उपेन्द्र वाजपेयी के साथ कमलापति त्रिपाठी से भेंट करने उनके आवास (9, जनपथ) पर गए| बड़ी साफगोई से उन्होंने कहा, “सुधा को हटवाने का आदेश ऊपर से आया है| मेरे राज्यमंत्री (मो. शफी कुरैशी) ही रेल मंत्री हैं|” इतने विवश थे त्रिपाठी जी आपातकाल के दौरान!

 

पुनः पंडित कमलापति त्रिपाठी पर|

 

आज के युवा पत्रकारों को उनके अग्रलेखों तथा आत्मकथा को पढ़ना चाहिए| यूं तो वे दुर्गा (शक्ति) के उपासक थे, मगर हमारे लिए सम्पादकजी सरस्वती-पुत्र रहे|

 

वाराणसी में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जब त्रिपाठीजी से मिले तो बोले, “आज राउर में हम्मे काशी विश्वनाथ के दर्शन होला|”

 

ऐसे थे संपादकाचार्य पण्डित कमलापति त्रिपाठी !

 

      ©के. विक्रम राव, नई दिल्ली      

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