लेखक की कलम से
एक खिड़की खुली है …
मैं बंद करती हूँ
ख़ुद को एक कमरे में
डर दरवाज़े के ठीक बाहर
ठकठक कर रहा है
पर मैं डरती नहीं हूँ
मैं किताबें छूती हूँ
उन पर चिपकी धूल उड़ाती हूँ
मोबाइल पर
कुछ पुराने दोस्तों
और गीतों के स्वरों को
विगत से खींचकर
कमरे की गुनगुनी हवा के
हवाले कर देती हूँ
एक खिड़की खुली है
मैं खिड़की पर किसी के डैनों की
सरसराहट सुनती हूँ
कोई कबूतर नहीं है..
वहाँ……..
खिड़कियों को खुला ही
रहना चाहिए
वहाँ जीवन कभी भी
सरसरा सकता है।
©डॉ.ऋतु त्यागी, मेरठ, उत्तर प्रदेश