लेखक की कलम से

रिश्तों को जोड़िए++ यह भी पूंजी है

बचपन में जब भी पूछता था कोई,

कितने भाई बहन हैं तुम्हारे ,,

जोड़ने लगते थे हम सभी ,,,

जल्दी जल्दी,,

अपनी नन्ही नन्ही उंगलियों पे,,

उंगलियाँ खत्म हो जाती ,,

जोड़ना नही

क्योंकि

कजिन, रियल क्या होता है??? ,,,

पता ही नहीं था।

माँ ने कहा

ये तेरे बड़े भाई है ये छोटी बहन,,

बस ,,

हो गए हम ढे़र सारे,

गर्मी की छुट्टियाँ,

कब आती ,

कब बीत जाती ,

पता ही नहीं था।

जब भूख लगे ,

जिस घर के बाहर खेलते

उसी में घुस जाते ,

वे अपने ना थे ,

पता ही ना था।

*चाची , ताई , मासी, बुआ,

ना जाने कितने अपने लोग ,

ना जाने कितने प्यारे रिश्ते,,

एक ही टोकरी मे सजे

अलग अलग फूलों की भाँति ,

उतना ही “अपना पन” ,,

उतनी ही “डाँट”,,

“परायापन” क्या होता है”

पता ही ना था।

 

बड़े हुए तब सुना ,,,

अपने परायों के किस्से,,

पर मन ,

वो तो रंग चुका था ,,

प्यार और अपनेपन के उन रंगों मे ,

जो कभी नहीं छूटता ,

बंध चुका था

उन रिश्तों की अदृश्य डोरियों में ,

जो कभी नहीं  टूटती ।

लगभग तीन चार दशको बाद ,

आज,जब जीने चले,

फिर से उन पलों को ,

तो इतना सुखद अहसास,,

आज भी सभी,

मेरे जैसे ही ,

खड़े हैं उसी मोड पर ,

एक दूसरे का इंतजार करते ,

उन यादो को मुट्ठियों में थामे

खोलते उडा़ते से,,

रंग-बिरंगी यादों की तितलियाँ,,

और

उन्हें पकड़ते हम सभी

उल्लास और आन्नद से भरे हुए ।

सच हैं ,

बचपन वापस तो नहीं लौटता ,,

पर जिया जा सकता हैं ,

उन यादों को, फिर से एकबार,

संजोये जा सकता हैं,

फिर से एक बार

उन रिश्तों को

पर कभी नहीं टूटे ,,,

दिल के करीब जो थे।

संदीप चोपड़े
संचालक, विधि प्रकोष्ठ
बिलासपुर

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