लेखक की कलम से
सुनो मोहन….
सुनो मोहन इस जन्म दासी हूँ तुम्हारी
जानती हूँ चाहकर भी तुम्हें पा न सकूंगी
तुम्हें भी फर्क नहीं पड़ता चाहने वाले इतने हैं
मेरी चाहत तो तुम हो तुम्हें भूला न सकूँगी
और कैसे भूलूँ सर्वस्व तुम पर न्योछावर किया है
मीरा बन के जुदाई का विष जो पिया है
तुम्हें सोचने के बाद कब सोचा कोई क्या सोचेगा
मेरे वक़्त का हर लम्हा मैंने तुम्हें भेंट किया है
मगर फिर जन्म लूंगी तो भिक्षुणी बनूँगी
झोली फैला कर तुमसे उन्हीं लम्हों की मांग करुँगी
तुम भी डालोगे क्या अंजुरी भर भर कर प्रेम
भिक्षुणी बन मांगूंगी दासी बन मिन्नतें न करुँगी
मेरी उम्मीदों की नौका को पार लगाओगे क्या
देखती हूँ मेरी तरह तुम भी निभाओगे क्या
जो लौट जाऊं खाली झोली तेरे दर से लेकर
दौड़कर तुम भी मुझे आवाज़ लगाओगे क्या।
©सविता गर्ग “सावी” पंचकूला, हरियाणा