लेखक की कलम से

अच्छा लगता है …

 

कोरोना काल ने
कितनी बातों का,
वादों का,
न्योतों का,
सामाजिकता का,
शिष्टाचार का,
रिश्तों का,
अपनेपन का,
प्यार मोहब्बत का
अर्थ ही बदल दिया।
जो पहले ज़रुरी लगता था
अब गैरजरूरी हो गया।
जो अच्छा लगता था
अब मज़बूरी हो गया।
नजदीकियां प्रेम का साक्ष्य था
अब दूरी हो गया।
देखिए तो ज़नाब
क्या से क्या हो गया।

जब किसी अपने के यहां
शादी ब्याह होता है।
कोई समारोह होता है।
और वो जानबूझ कर,
या भूल कर,
या हमारा भला सोच कर,
या बेगाना समझ कर,
नहीं बुलाए
तो अच्छा लगता है।
हम जाएं या ना जाएं।
समारोह सभी
शांति से निबट जाएं।
शादियां अच्छे से हो जाएं।
आशीर्वाद के गुलदस्ते मिल जाएं।
तो अच्छा लगता है।

कोई घर नहीं आए,
अपने घर नहीं बुलाए,
अक्सर फ़ोन करे,
घण्टों बात करे,
हमारी सुध ले,
अपनी सलामती बयां करे।
‘सब ठीक है’
इतना सा सन्देश करे।
तो अच्छा लगता है।

पास पड़ोस में,
दूर दराज में
किसी को कोरोना के
लक्षण नहीं हों।
रिपोर्ट्स नेगेटिव हों।
पॉज़िटिव हों तो
असिमटोमैटिक हों।
या फिर हल्के हों।
अस्पताल जाना न हों।
शीघ्र रिपोर्ट नेगेटिव हो,
अस्पताल जाना हो
तो ठीक हो कर शीघ्र
अपनों के बीच घर लौट आए।
सुन कर जान कर
अच्छा लगता है।

दूर से ही सही
कोई हमें याद करे,
अपना अज़ीज कहे,
हमारे लिए दुआ करे,
हम भी औरों लिए दुआ करें।
कोरोना उपयुक्त व्यवहार करें।
घर में रहें,
सुरक्षित रहें,
सतर्क रहें।
तो अच्छा लगता है।

अखबारों में
टीवी पर
शुभ समाचार मिलें।
कोरोना ग्राफ नीचे गिरे।
अस्पतालों में बैड खाली रहें।
एम्बुलेंस का काम कम रहे।
डॉक्टरों को आराम रहे
तो अच्छा लगता है।

दुआएं सबकी कबूल होती रहें।
ईश्वर की मेहरबानी बनी रहे।
हर जीवन में खुशहाली रहे।
तो अच्छा लगता है।
हाँ, सच में अच्छा लगता है।

 

©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात          

Back to top button