लेखक की कलम से

“ये जानते हुए कि.!”

कहना है कुछ..बस यूं ही..!

‘ये जानते हुए कि

कोई दुखी है आपसे

आप कैसे खुश रह लेते हैं

 

ये जानते हुए कि

व्याकुल भूख से

किसी की अंतड़ियों में ऐंठन है

और उसके हिस्से का निवाला

आपकी थाली में है

फिर भी आप भरपेट कैसे खा लेते हैं

 

ये जानते हुए कि

कि कोई दर-बदर है

दिन रात तर बतर है

उसकी छत केवल ईश्वर है

फिर भीआप बेसुध कैसे सो लेते हैं

 

आपकी अनदेखी हसरतों पर

उसकी तो ठोकर में भी आब है

उसकी बंद मुट्ठी और सिले होंठ

हक का सच्चा इंकलाब है

 

ये जानते हुए भी..

 

सच कहूं तो

आपके खाने, सोने और रहने में

आपकी कोई खता ही नहीं है

क्योंकि मनुष्यता और पशुता में फ़र्क

आपको पता ही नहीं है।’

©आलोक शर्मा

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