लेखक की कलम से
परिवर्तन……
परिवर्तन ज़रूरी है
परन्तु ऐसा भी क्या ?
हम मूल सहित हो जाएं परिवर्तित।
हमारी जड़ें फली फूली हैं जिसमे
जिसके पोषण से हम उगे,
इतने ऊंचे उठे कि,
सोच सकें आसमां छूने की।
उस मिट्टी से कटकर,
चेष्टा करें वहां उगने की
जहां पूर्णता है।
सोचना आवश्यक है,
परखना बेहतर है कि वह मिट्टी ही है।
रेत नहीं है।
कहीं हम उग ही न सकें,
जब तक सुध आए
हमारी अपनी मिट्टी, हो जाए परिवर्तित
चट्टानों में।
और उसे मान बैठें हम बंजर।
©अर्चना त्यागी, जोधपुर