लेखक की कलम से

मैं प्रकृति हूं ….

मैं प्रकृति हूं

प्राकृतिक उपादान

नदी,ताल,सर,सरोवर,

अरण्य,अटल,वायु,

निर्झर, पेड़ पौधे

अभिन्न अंग मेरे……

अकाट्य मुझसे

मैं सदियों से हष्ट पुष्ट

रखती हूं इन्हें…

मेरी सत्ता को व्यथित ना करो

मैं स्वाभाविक रूप से जन्मी, स्वभाविक रूप से

जीवनयापन करती हूं!

धैर्यता, सहनशीलता

मेरे गुण

प्रत्येक बार-प्रहार को

मौन बर्दाश्त करती

निश्चित समय सीमा तक!

तुम मेरे अस्तित्व के अभिन्न अंश मात्र हो

स्मरण रखो

मदांध मानव !!

सांकेतिक चेतावनी को समझो

बुद्धिजीवी परिचय दो

बुद्धिचातुर्य का!

सत्ता बचानी स्वयं की

तो रक्षा करो मेरी….

क्रोधित हुई तो

रोषाग्नि से ज्वलित हो जाएगे

जग जीवन तुम्हारा……

झरने, नदी, समंदर जब चल देंगे

अपनी सीमा तोड़

नाश होगा……

जब वायु गतिशीलता के लय को

त्याग भग्नकर प्रचंड होगा

तो क्या तुम स्थापित रह पाओगे?

जब अटल कंपित होगा तो

क्या तुम व्यवस्थित रह पाओगे?

जब पेड़-पौधे अनवरत अतिवेग से चंचल होंगे तो

क्या धैर्य रह पाओगे?

मैं प्रकृति हूं

हे मानव तुम मेरी सृष्टि के एक अंश मात्र हो…..

मेरे विचलित होने से पूर्व

तुम नियंत्रित करो

क्रूर तांडव कुकर्म को!

मुझे श्वास लेने दो

स्वयं भी

मेरी छत्र छाया में दीर्घायु की कामना

दीप प्रज्वलित करो

मैं प्रकृति हूं

शांति दूत हूं……

 

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                            

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