लेखक की कलम से

मृत्यु प्रत्यक्ष खड़ी थी …

क्या ? मृत्यु तुम प्रत्यक्ष खड़ी थी

पाषाण सी मैं निहारुं

कभी अवनि कभी गगन को

मन ही मन मैं विचारुं

 

क्या? मृत्यु तुम प्रत्यक्ष खड़ी थी।

 

मेरी खुशियों को लीलने

अप्रत्यक्ष से कब से खड़ी थी

भूल हुई कब ,किस जगह पर

क्यों तुम सामने खड़ी थी

 

हाँ ? मृत्यु तुम प्रत्यक्ष खड़ी थी।

 

सुबह की वो सुनहरी किरणें

जिसमें मेरे स्वप्न सजे थे

सांध्य के होते ही तुमने

मेरे स्वप्नों को हर लिये थे

 

क्या ? मृत्यु तुम प्रत्यक्ष खड़ी थी।

 

क्षण में ही इहलोक से

परलोक तुम चल दिये थे

सांसें रुकी सी रह गई थी

निष्ठुर हाथ भी तज दिये थे

 

क्या ? मृत्यु तुम प्रत्यक्ष खड़ी थी।

 

पाषाण आँखें, पाषाण सी मै

मूक मेरे स्वर सभी थे

इर्दगिर्द सब जड़ पड़े थे

नेत्र सबके नम पड़े थे

 

क्या ? मृत्यु तुम प्रत्यक्ष खड़ी थी।

 

©सुप्रसन्ना झा, जोधपुर, राजस्थान         

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