लेखक की कलम से

नदी….

भावों से भरा गीत तुम।

जो हृदय को तृप्त कर दे वो संगीत तुम।।

कल कल बहती धारा सी तुम।

बच्चन की मधुशाला सी तुम।।

बलखाती, इठलाती, नखरे बहुत दिखाती तुम।

बह रही हो पत्थरों पर क्यों इतना शोर मचाती तुम।।

क्या कहीं रूकेगी ये धारा।

जिस पर खेत, खलिहान बहा ले जाती तुम।

अब तो रूक भी जाओ।

बिनती मेरी मानो।

क्यों प्रलय से पहले प्रलय ला रही तुम।

तुम्हारी धारा की हठखेलियों में बचपन बीता है।

तुम्हारे किनारों पर लगे पेड़ों सं संध्या को सींचा है।।

संगमरमर सी काया है।

फिर भी क्रोध तुमको आया है।।

मत इतना रुठो मान जाओ तुम।।

अब न प्रकृति का नाश करेंगे।

ना ही धरा का विनाश करेंगे, नित नये पौधों का न्यास करेंगे।

अपने उज्जवल जल से धरती को मत नहलाओ तुम।

अब तो मान जाओं तुम।

अब तो मान जाओ तुम।।

©वाणी तिवारी, प्रयागराज, उत्तरप्रदेश

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