लेखक की कलम से

बीच होली के …

मुझे नहीं पता क्या सही है और क्या गलत ? मुझे ये भी नहीं पता की इसके बाद मुझे क्या –क्या सहना पड़ सकता है ? लेकिन मुझे सिर्फ इतना पता है की वो भी इंसान है और मैं भी ! वो भी औरत है और मैं भी ! क्या इतना रिश्ता काफी नहीं है “माँ” ?????????

देख तुझे मेरे साथ नहीं आना है तो तू मत आ लेकिन अब मुझे जाने से मत रोक। पाँच दिन से …..माँ पाँच दिन से वो इंसाफ और धर्म के नाम पर हैवानियत का शिकार हो रही है। मैं ………मैं कुछ ना कुछ हल निकाल कर ही छोड़ूँगी।

झिम्मों अगर तूने ठान ही लिया है बिटिया तो तेरी माई तेरा साथ जरूर देगी, अगर तेरा उससे इंसानियत का रिश्ता है तो मैं भी इसे निभाऊंगी लेकिन हमें जो भी करना होगा बहुत सोच समझ कर करना होगा और इसके लिए हमें सही वक्त का इंतजार करना होगा !

माँ, अब ज्यादा इंतजार किया तो कीनिया मर जाएगी। जीतने दिन बीतेंगे उसे उतने ही दिन जाने कितनी बार और कितने ही नाम के मर्दों की वासना का सामना करना पड़ेगा। छी ……… मुझे शर्म आती है, पिताजी और भाई भी ………………………” झिम्मों सिसकने लगी।

रोओ मत बिटिया, हम कल भोरे ही चलेंगे। कल धूलैन्डी है, सारे मर्द धूल खेंलेंगे और गाँव के सब घर पूरे होते-होते दिन चढ़ जाएगा। यही समय है जब हम सबकी नजर बचाकर गाँव से निकल सकते हैं। अब सो जाओ, नेक काम करने के लिए शरीर में ताकत भी चाहिए। “मनोरमा झिम्मों को समझाकर रसोई में आ गयी। उसने गमछि में थोड़ी लिट्टी बांधी और छ्परेल पर छिपा दी। फिर वो कमरे में आकर ऐसे सो गयी की जाने दुनिया की उसे खबर ही ना हो।

अगले दिन पौ फटते ही गाँव में हुड़दंग का माहौल बन गया। मस्त फागुन की बयार के साथ गाँव के सारे मर्द भी मस्त हो रहे थे। चौपाल पर जम कर भांग घोटी और पी गयी। शराब की तो जैसे लूट मची हो। ढोलक की थाप “धिक धिक धाक धाक ……….धिक धिक धाक …….”सारे गाँव में बहने लगी और थाप के साथ औरत बना लौंडा अपनी ताल मिलाने लगा। कोई मर्द उसकी चुनरी पकड़ कर ” जोगिया ….’ गाने लगता तो कोई मर्द उसके साथ अश्लील ठुमके लगाने लगता। मर्दों की टोली नशे और ढोलक की थाप पर झूमती हुई गाँव के हर घर के सामने जाकर बारी – बारी से रुकती और फगुआ गाने लगती। उस घर के सारे मर्द भी बाहर आकर टोली के साथ धूल से होली खेलते और टोली में शामिल हो जाते। धीरे – धीरे करके गाँव के लगभग सभी मर्द, बूढ़े, बच्चे टोली में शामिल होकर गाँव का चक्कर लगाने लगे और शराब, भांग की बारिश में नहाते हुए अश्लील गानों और देसी फगुआ की धुन पर मटकने लगे। जहाँ एक ओर ये मस्ती की किश्ती गाँव के तालाब की ओर बढ़ रही थी वहीं दूसरी ओर झिम्मों और उसकी माँ मनोरमा घर की बहू से दवा खाने का बहाना बनाकर जंगल के रास्ते से शहर की ओर बढ़ रहीं थी।

झिम्मों का सारा बदन पसीने से चू रहा था और मनोरमा की बूढ़ी हड्डियाँ बिना भजन कीर्तन कर रही थीं। दोनों तेजी से कदम बढ़ाती थीं और सतर्क नजरों से जंगल के कोने – कोने को नापती थी। झिम्मों का दुबला –पतला शरीर और लंबे हाथ पैर जंगली पौधों और पतवार को हटाकर रास्ता बनाते थे तो मनोरमा का जीवन अनुभव उसे सही मार्ग बताता था। यूं लग रहा था जैसे एक बार फिर अर्जुन और कृष्ण एक दूसरे के सारथी बन कोई धर्म युद्ध लड़ने जा रहे हो। वहाँ भी दूसरी ओर अपने थे और यहाँ भी दूसरी ओर अपने थे। वहाँ द्रौपदी की लाज के लिए धर्म युद्ध लड़ा गया था और यहाँ कीनिया की लूटी इज्जत समेटने के लिए जंग में पहला कदम उठाया गया था। दोनों जानती थी शाम होते – होते पूरे गाँव को पता चल जाएगा की वो दोनों गायब हैं और वो दोनों ये भी जानती थी कि कोई भी ये अंदाजा नहीं लगा पाएगा कि वो दोनों पंचायत के खिलाफ भी जा सकती हैं। सभी इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि उन्होंने नीच जाति की कीनिया को बंदी बनाया हुआ है और इसी बदले के लिए वो लोग अगड़ी जाति की स्त्रियॉं को उठाकर ले गए हैं। गाँव में तहलका मच जाएगा, हो सकता है कि कीनिया के साथ मार पीट की जाए और नीच जात के समुदाय से बदला लेने के लिए कुछ पैंतरा निकाला जाए। ये सब कर्मकांड होने में और अगला वीभत्स खेल शुरू करने के लिए उन लोगों को कम से कम अगली सुबह का इंतजार करना पड़ेगा और यही समय उन दोनों के लिए युद्ध का निर्णय लेगा।

मनोरमा तेजी से कदम बढ़ाती थी और बीच – बीच में नजर घुमाके अपनी सुकुआर, नवयौवन से भरपूर बेटी झिम्मों को देखती थी। उसे दोनों ओर की चिन्ता खाए जा रही थी, अगर वो झिम्मों के साथ ना आती तो झिम्मों के साथ कुछ हो जाने पर वो खुद को कभी माफ नहीं कर पाती और अगर उन्हें कीनिया के लिए कोई मदद ना मिली तो ???? अपना तो वो सह लेगी लेकिन झिम्मों …………

वो उसकी अस्मत को लुटते हुए और नुचते हुए नहीं देख पाएगी, यूं भी जिस उम्र के पड़ाव पर वो खड़ी थी उस पड़ाव ने पंचायत के हाथों जाने कितनी औरतों की दुर्दशा देखी थी। प्रताड़ना के तरीके बदल जाते थे, लोग भी बदल जाते थे पर औरत और मर्द के बीच का फर्क वहीं का वहीं था। औरत बस कोख थी – औरत बस बिस्तर महकाता सुगंधित फूल थी और औरत बस घर की छत की वो लकड़ी थी जिसे केवल दो ही जगह जलने का अधिकार था, या तो चूल्हे में और या तो चिता में।

उसकी झिम्मों तो पगली है। बचपन से ही गलत होते नहीं देख पाती है। स्कूल में इतनी होशियार कि मास्टर साहेब कहते “तनि बबुनी को मौका मिल जाए तो कलेक्टर बन जाए”। वो गर्व से फूलते और मैं उसकी माँ होकर भी उसके अच्छे अंक देखकर दुबक जाती। कई बार मेरी ये पगलिया अपने पिताजी से मेरी ख़ातिर भीड़ पड़ी और नौ – नौ चोरों की मार खाई। पर क्या करूँ इसके अंदर की इंसानियत ना तो जूते से डरती है और ना ही लाठी से और इसकी यही इंसानियत इसे आज यहाँ जंगल में दौड़ा रही थी।

मनोरमा का अंदाजा बिल्कुल भी गलत साबित नहीं हुआ। शाम को जब मर्द लोग नशे में लोटते पोटते घर पहुंचे तो हंगामा मच गया। अगड़ी जाति के मर्दों की मर्दानगी और भी कुलाचें मारने लगी। नीच जाति को तहस नहस करने का पुख्ता उपाय खोजा गया और कुछ नशे में चूर अमानुष अगड़ी जाति के सपूतों ने कीनिया को फिर से रौंद डाला। सुबह के इंतजार में सभी मर्द बेचैन हो रहे थे और इस होली पर नीच जाति के खून से हुड़दंग करने के मंसूबे ठाने बैठे थे। लाठियाँ, तलवार, कट्टे तैयार कर लिए गए थे।

वहीं दूसरी ओर जंगल के कठिन रास्ते को पार करके झिम्मों और मनोरमा सोनपुर पहुँच चुकी थी। शहर पहुँच कर उन्होंने पुलिस चौकी का रास्ता पता लगाया और बेतहाशा दौड़ते हुए चौकी पहुँच कर ही दम लिया। इस लम्बी कठिन यात्रा ने मनोरमा को बुरी तरह तोड़ दिया था लेकिन झिम्मों को चौकी पहुंचाने तक उसने सांस को थामें रखा। चौकी पहुँचकर वो बेसुध हो गयी लेकिन झिम्मों ने हिम्मत नहीं हारी। उसने पुलिस को सारी स्थिति और खतरे से अवगत करवाया। पुलिस ने मनोरमा को अस्पताल भेजा और झिम्मों को खाने पानी के बाद एक पुलिस वैन में बिठाया। पुलिस के उच्च अधिकारियों ने दो टीमों का गठन किया जिससे दंगे या खून खराबे की स्थिति से निपटा जा सके। एक टीम झिम्मों के साथ कीनिया को बचाने के लिए निकली और दूसरी टीम इस प्रकरण में होने वाली बाधाओं से लड़ने के लिए उनके साथ गयी।

काले अंधेरे में जीपों की मध्म रोशनी में जंगल और भी भयानक लग रहा था लेकिन झिम्मों के मन में जला इंसानियत का दिया पूरे जोश से रोशन हो रहा था। इस दिये ने आज ना केवल कीनिया को होली के अवसर पर दिवाली का प्रकाश दिया था बल्कि गाँव की अन्य औरतों के लिए भी नारी अधिकारों के रंगों का सूरज प्रज्वल्लित किया था।

 

©संजना तिवारी, दिल्ली                      

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