लेखक की कलम से

मृत्यु का अमृत भाव _

यह जीवन मूल रूप में अमरता की ही यात्रा है। जीवन को यदि सरलतम ढंग से कहा जाय तो यहीं कहेंगे कि यह वह अवस्था है जिसमें जीवित होने का भाव होता है। इस भाव के अन्तरगत प्राणी अपनी इन्द्रियों द्वारा विभिन्न व्यवहार करता है। उपनिषद का यह सूत्र कहता है कि हमे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। यह पूरा सूत्र नही हैं। इसके पूर्व सूत्र कहता है कि असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। जब यह दोनों बातें घट जाँय तो तीसरी बात बहुत सरल हो जाती है। जब सत्य और प्रकाश मिल जाते हैं तो मृत्यु अमरता में परिवर्तित हो जाती है।

मृत्यु भयभीत करती है। व्यक्ति को मरने में मात्र क्षणभर या उससे भी कम समय लगता है किन्तु मृत्यु की पूर्वसूचना पूरे जीवन साथ चलती रहती है। मृत्यु की अनुभूति और उसका शब्द सम्प्रेषण भी असम्भव है ; क्योंकि यह वह घटना है जिसमें आप समूचे घट जाते हैं। आपका समूचा व्यक्त चला जाता है। चेतना की यात्रा रह जाती है। किन्तु चेतना जिससे अभिव्यक्त होती है, वह समाप्त हो जाता है। इस भय को सनातन दर्शन ने बरसों पहले समझा था। सनातन की जो सूक्ष्म दृष्टि है उसका पूरा बल इसी बात पर है कि व्यक्ति का जीवन कैसे सुखमय और भयमुक्त हो। वह इस जीवनकाल में ही अमृत की बात करता है। प्राणी इसी जीवन-वृत्त में, पूर्ण जागरण में ही अमरता को अनुभूत कर सकता है।

अमरता क्या है ? अमरता यह नही कि हम मृत्यु को प्राप्त ही नहीं होंगे, अपितु यह कि मृत्यु के पश्चात भी इस अविच्छिन्नता में, इस नैरन्तर्य में, हम सदा ही रहेंगे। इस निरंतरत्व में हमारा अस्तित्व समाप्त होगा भी तो कैसे ? इसके समाप्त हो जाने का कोई उपाय, कोई सम्भावना तो नही दिखती ! इस ज्ञात जीवन की छोटी सी अवधि का व्यतीत हो जाना भर मृत्यु तो नही है ! हमारे ऋषि जीवन को ही उत्तरोत्तर सम्भावना मानते हैं।

हमारे चतुर्दिक ऐसे विचार आवें जो कल्याणकारी हैं, जिन्हें दबाया न जा सके, जिन्हें बाधित न किया जा सके और वह जो अज्ञात है उसको प्रकट करने वाले हों। हमारी रक्षा में सदैव तत्पर रहने वाले, प्रगति को बढाने वाले देवता प्रतिदिन हमारी वृद्धि को तत्पर रहें। अब जो अज्ञात है उसको प्रकट करने वाले विचारों की अभ्यर्थना ही अमरता की पुकार है।

व्यक्ति सूक्ष्म का अन्वेषण नहीं करता। वह जो बचा है उसको देख हर्षित नही होता। वह जो चला गया और कोटि प्रयास के उपरान्त भी आने वाला नही है, उसमें ही निर्विष्ट रहता है। दुःख प्रबल होता है और उससे प्रबल होती है दुःख  की छोड़ी गयी प्रातिच्छाया। इस प्रातिच्छाया को पाटना सरल नहीं होता। किन्तु दुख को छाती से चिपका लेने से कुछ नहीं बदलता। हाँ दुख इतना भ्रम अवश्य दे देता है कि व्यक्ति उसी से लुबधा जाय।

व्यक्ति जीवन पर्यन्त प्रक्रमण करता रहता है। एक मृत्यु ही है जिसको ढूँढने की आवश्यकता नही होती। वह स्वयं ढूँढ़ लेती है। मृत्यु अविद्यमान है। जीवन प्रत्यक्ष है। जीवन प्रकृतिस्थ है। जीवन की प्रकृतिलय ही मृत्यु है। मानवता के इतिहास में जीवन के हार जाने का कहीं कोई उदाहरण नही मिलता। जीवन तो तंकन में भी अक्षुण्ण है। इसे ऐसे ही जीना चाहिये।

मैं ऐसे ही जीवित मर जाता हूँ। जीवन को बचा ले जाता हूँ। पिव को देख दिखाकर आनन्द पाता हूँ। समय का यह चक्र तपनीय है। काल का यह अंकपरिवर्तन भी अस्थायी है। वह पुनः करवट बदलेगा।

 

©प्रफुल्ल सिंह, लखनऊ, उत्तर प्रदेश          

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