इंद्र और उसका मायाजाल…
इंद्र हमारे मिथकों के सर्वाधिक ईर्ष्यालु किरदार हैं। उनकी बेचैनियों से हम सब वाकिफ हैं। देवलोक में कभी जलजला आए या न आए इंद्र का सिंहासन आए दिन डोलता रहता है। तमाम परेशानियां हैं उनके जी को। देवलोक तो देवलोक पृथ्वीलोक के वासी भी आये दिन इंद्र को हैरान करते रहते हैं। इधर किसी तपस्वी ने आसन जमाया और उधर इंद्र का सिंहासन डोला। वह फौरन कामदेव को रवाना करते हैं। कामदेव अप्सराओं की अपनी फौज के साथ धरती पर पधारते हैं। तपस्या भंग करवाकर ही इंद्र को चैन की नींद पड़ती है।
बुद्ध की तपस्या से भी इंद्र बेहद आहत हुए। उन्होंने तुरत-फुरत मोर्चा संभाला और मार को मय सेना रवाना किया। बौद्ध धर्म में इंद्र शक्र कहलाते हैं और कामदेव की संज्ञा मार है। जब गौतम ने गया में पीपल के पेड़ के नीचे अपना वज्रासन जमाया शक्र ने विचलित हो मार को याद किया । मार दल-बल के साथ हाजिर हुए और गौतम को तरह-तरह से परेशान करने लगे। लेकिन गौतम टस से मस ना हुए । उनके चरित्र की दृढ़ता उनके व्यक्तित्व की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता है।
उनका एक चचेरा भाई था, देवव्रत। इंद्र की तरह ही ईर्ष्यालु और कुटिल। गौतम का पूरा बचपन देवव्रत की पंगेबाजियों को बर्दाश्त करते ही बीता था। लेकिन उन्होंने सहनशीलता का परिचय देते हुए देवव्रत की गतिविधियों पर कभी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी। उनकी बर्दाश्त की हद का अंदाजा मार को न था। उसने तमाम हथकंडे अपनाए पर गौतम उसे निरंतर नजरअंदाज करते हुए ज्ञान प्राप्ति के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए।
ज्ञान प्रप्ति के बाद उन्होंने भूमि का आह्वान किया। आह्वान की वजह मार की छेड़छाड़ थी। वह बार-बार बुद्ध को उनका स्थान और आसन छोड़ने के लिए उकसा रहा था। उसकी सेना बुद्ध के लिए तमाम परेशानियां खड़ी कर रही थी। बुद्ध ने विनम्रता से प्रतिवाद करते हुए कहा कि, ‘वह संबोधी प्राप्त कर चुके हैं। अतः मार का प्रयास निष्फल हुआ। स्थान छोड़ने की जरूरत उसे है न कि बुद्ध को’। लेकिन मार किसी भी तरह उनकी बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता है। उसे गवाही की दरकार है।
बुद्ध अपने संबोधी के साक्षी के रूप में पृथ्वी का आह्वान करते हैं। वह अपने दाहिने हाथ की तर्जनी से भूमि को स्पर्श करते हुए पृथ्वी को गुहार लगाते हैं । पृथ्वी काँपने लगती है। पृथ्वी के हिलने से मार भयभीत हो जाता है। गवाही के लिए उपस्थित पृथ्वी को देख वह नतमस्तक हो अपनी पराजय स्वीकार कर लेता है। बुद्ध के द्वारा पृथ्वी के आह्वान की इस मुद्रा को भूमिस्पर्श मुद्रा कहा जाता है ।
भूमिस्पर्श मुद्रा में बौद्ध धर्म का पूरा फलसफा कैद है। बुद्ध ने आजीवन उपासना को महत्व दिया। किसी दैवीय शक्ति की आराधना करने के स्थान पर अपने भीतर की नकारात्मकता पर विजय प्राप्त करना, मोह- माया के बंधनों से ऊपर उठना, सुख-दुख से विरक्त हो जाना ही उनकी दृष्टि में सार्थक एवं वास्तविक उपवास था।
बुद्ध मृत्योपरांत जीवन की बेहतरी के लिए कोई संघर्ष नहीं कर रहे थे ना ही ऐसे किसी संघर्ष का अनुमोदन उनके विचारों,उपदेशों और शिक्षाओं में मिलता है । वह पृथ्वी पर सांसारिक भोग-विलास के अतिरिक्त आकर्षण में बँधे हुए जीवन के विरोध में थे। उनका क्रीड़ा स्थल पृथ्वी थी। ऊपर स्थित देवलोक और नीचे स्थित पाताल लोक से वह पूरी तरह से निस्पृह थे। यही वजह है कि उन्होंने अपने बुद्धत्व का साक्षी पृथ्वी को बनाया जिस पर वे जीवित थे और जहाँ उन्हें अंतिम रूप से समाप्त हो जाना था। उन्होंने न तो आकाश(देवलोक) की गुहार लगाई और ना ही पाताल लोक में स्थित नकारात्मक शक्तियों का मुंह देखा। उनका सर्वस्व धरती पर ही था। उनका मूल विरोध भोग-लिप्सा में डूबे सांसारिक जीवन से था। वह संन्यासी जीवन शैली से प्रभावित थे जिसका चर्मोत्कर्ष हमें बौद्ध संघ की स्थापना में दिखता है।
शुरुआत में स्त्रियों को संघ- प्रवेश की अनुमति न देने के मूल में उन्हें संघ एवं संन्यासी जीवन के लिए बाधा मानना ही था। स्त्रियाँ परम्परा से सांसारिकता, मोह-माया और बंधन का प्रतीक मानी जाती रही हैं। बुद्ध स्त्रियों से दूरी बरतने का सुझाव देने में कभी हिचकते नहीं हैं।
©नीलिमा पांडे, लखनऊ