लेखक की कलम से

शिलाएं भी रिसती है क्या?

 

वो, कर रहा था, दोहन धरती का,

कर रहा था ,वार, लगातार,

उसकी छाती पर,

वार सहते – सहते,

जो निकलती, थोड़ी सी आह

याद दिलाता उसे ,

तुम तो धरती हो,

सहनशील हो, दाता हो,

दुख तकलीफ सहकर भी,

हमेशा खिली रहो ,

अपनी तकलीफ़,

किसी से ना कहो ।

पर ,धरती दरक रही थी ,

सिसक रही थी,

 

तो,कहा उसने,

ऐसा करो, ऐसा करो ना,

तुम, शिला बन जाओ,

क्योंकि शिला होती है पत्थर,

जिसमें नहीं होती, भावनाएं

नहीं होता जीवन।

और तब, धरती शिला बन गई।

फिर, वह निश्चिंत होकर

करने लगा वार और ज्यादा वार।

शिला तो,रोएगी भी नहीं,

यह सोच कर।

पर ,सोच रही थी शिला,

यह कैसा जीवन?

शरीर ही नहीं, आत्मा पर भी,

चोट खाकर, रोना वर्जित,

आंसू जो निकल गए,

कहा जाएगा, त्रिया चरित्र!

सोचा था ,

शिला बनकर ,

नहीं रोएगी वह

नहीं असर होगा,

किसी चोट का उस पर,

पर ग़लत थी वह,

शिला के नीचे से भी,

नमकीन सा सोता रिस रहा था,

जो दूसरी शिला तक पहुंच रहा था बताया ,

दूसरी शिला ने ,

आंसुओं का स्वाद है, इसमें

दूसरी शिला से भी,

कुछ खारा पानी रिस रहा था,

जो पहली शिला तक

पहुंच रहा था।

दोनों शिलाओं के सीने में प्रश्न लहराया

समवेत स्वर में ,दोनों ने स्वर उपजाया,

शिलाएं भी, रिसती हैं क्या ?

अब और क्या बनें,⁷

ताकि, ना रिसे,

भीतर से कोई नमकीन पानी!

दुख से भरी, दोनों पूछ रही थीं,

शिलाएं भी रिसती  हैं क्या?

 

©अलका शर्मा                                

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