लेखक की कलम से

मौन एक मस्ती …

मौन के वृक्ष में लगते हैं, हमेशा शांति के फल ये पुरानी कहावत है –

यदि आप शांति के तलाश में हैं तो अपनी दोस्ती मौन से कर लीजिए।

मौन और चुप्पी – में फर्क है। चुप्पी बाहर होती है, मौन भीतर घटता है। चुप्पी एक मजबुरी है लेकिन मौन यानी शांति एक मस्ती है। इन दोनों ही बातों का संबंध शब्दों से है, दोनों ही स्थितियों में हम अपने शब्द बचाते हैं लेकिन फर्क ये है कि चुप्पी से बचाए हुए शब्द अंदर ही अंदर खर्च कर दिए जाते हैं। चुप्पी को यूं भी समझा जा सकता है कि पति और पत्नी में खटपट हो तो अकसर बातचीत बंद हो जाती है। भीतर ही भीतर एक दूसरे के मन में सवाल खड़े किए जाते हैं, और गलतफहमी यो का मन में उत्तर भी दे दिए जाते हैं, यह एक तरह की चुप्पी है। इसमें शब्दों को बैचैनी को जन्म दिया, आशांति को पैदा कर दिया। दबाए गए शब्द बीमारी बनकर उभरते हैं। इससे तो ज्यादा अच्छा है शब्दों को बाहर निकाल ही दिया जाए।

मौन यानी खामोश हो जाना मौन से बचाए हुए शब्द समय आने पर पुरे प्रभाव और आकर्षण के साथ व्यक्त होते है, जिसे एक प्रकार से यह भी कहा जा सकता है, समय आने पर खुद आपके बिना कुछ कहे खुद ब खुद जवाब मिल जाएगा। फिर आपको कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। सामने वाला व्यक्ति ही आपको अपने सही होने की सफाई तरह-तरह से देगा और आप खामोशी से उसकी सही-गलत साबित करने के अंदाज से खुद को अलग करके खुद को मौन की मस्ती में डुबोकर मंद-मंद मन ही मन मुसकराते रहेंगे। सामने वाले की प्रक्रियांएं देखकर।

आज के व्यवसायिक युग में शब्दों का बड़ा ही खेल है। आप अपनी बात दूसरों तक कितनी ताकत से पहुंचती है, यह सब शब्दों पर निर्भर करता है। कुछ लोग सही होते हुए भी शब्दों के आभाव से गलत साबित हो जाते हैं।

और कुछ लोग गलत होकर भी शब्दों के हेराफेरी में खुद को सही साबित कर दिया करते हैं। कोई आपकी बात क्यों सुनेगा। यदि आपके पास कुछ सुनाने लायक प्रभावी शब्द नहीं होगा तो। इसलिए यदि शब्द प्रभावी बनाना है तो जीवन में मौन घटित करना होगा।

चुप्पी तो चेहरे का रौब है और मौन मन की मुस्कान है। जीवन में मौन लाने के लिए बस एक ही तरीका है खुद से संतुष्ट होकर दूसरों के प्रतिक्रिया को नजरअंदाज कर मंद ही मंद मुस्कुराते रहिए।

©तबस्सुम परवीन, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

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