लेखक की कलम से

….उपवास खोलने वाली शाम रहो तुम….

 

चितचोर के व्याकरण मेरे रहो तुम,

कोमल मनोभाव के चितेरे रहो तुम,

सिंदूरी रंग मांग में सुसज्जित कर ,

सात जन्मों के सात फेरे रहो तुम।

 

कलम के गीतों से सुनहरे रहो तुम,

स्वर लहरी मन को घेरे रहो तुम,

अनकही खामोश बातें कर यूं ही ,

साज के चितवन में ठहरे रहो तुम।

 

नयनों में इंद्रधनुष से इशारे रहो तुम,

अपार नेह भरते सदैव हमारे रहो तुम,

लड़ते झगड़ते कभी कभार बिगड़ते,

संवादों का संसार भी संवारे रहो तुम।

 

आराधना का पावन धाम रहो तुम ,

आरती की थाल का प्रणाम रहो तुम,

मन में विश्वास की अटूट ज्योत की,

उपवास खोलने वाली शाम रहो तुम।

©अंशिता दुबे, लंदन

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