लेखक की कलम से

अलविदा ….

 

हो गए भले तुम मुझसे जुदा

मगर कह नहीं सकता मैं तुम्हें

कभी अलविदा.!

अफसोस ना होता

गर यह बता दिया होता

कसूर क्या था मेरा

किस गुनाह की दी सजा

था मैं तुम पे

दिलो जान से फिदा

कह नहीं सकता मैं तुम्हें

कभी अलविदा..!

याद के इतने समंदर भर गए

कि अश्कों के दरिया बह रहे

गूँजता है मेरे कानों में

हर एक वो शब्द

जो तुम वादों में कहते रहे

हो चुके हैं राख सपने सारे

पर जल रही भीतर

विचारों की चिता

कि…

प्राण थे तुम

शून्य हूँ मैं !

किस हेतु,क्यों जुड़ा

यह सम्बंध था ?

आत्मा से आत्मा का

स्नेह अनुबंध था !

भूलना संभव नहीं मौत से पहले

धड़कनों में गूंजते रहोगे सदा !

कह नही सकता मैं तुम्हें

कभी अलविदा..!

 

©कुमार धर्मी, दौसा, राजस्थान

Back to top button