लेखक की कलम से

एक आधुनिक सोच भारतीय संस्कृति पर धब्बा …

हम कई बार सुनते हैं, पढ़ते हैं कि हाई सोसायटी में आजकल एक प्रथा चल रही ‘वाइफ़ स्वैपिंग’ यानि कि एक रात के लिए पार्टनर चैंज की। पति-पत्नी साथ में बोरियत महसूस करते हैं और कुछ नया अनुभव करने के चक्कर में अपने फ़्रैंड सर्कल में एक दूसरे के साथ पार्टनर अदला-बदली करके खुद को मॉर्डन साबित करने के लिए ये तरीके अपनाते हैं। सबसे ख़ास बात यह है कि ये खेल पति-पत्नी दोनों की रज़ामंदी से खेला जाता है।

पश्चिमी सभ्यता में रिश्तों के मायने हमेशा से ही न्यूनतम रहे हैं। वहां पर ये सारी चीज़ें आम बात है। जैसे कि लिव इन रिलेशनशिप, तलाक और वाइफ़ स्वैपिंग जैसी घिनौनी हरकतें वहा की संस्कृति बन गई है। पर अब एक वर्ग के लोग भारतीय संस्कृति में विकृति घोल रहे हैं। अपनी जीवनशैली को आधुनिकता का नाम देकर निजी संबंधों के मायने ही बदल रहे हैं।

सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम प्रदर्शन से शुरू हुआ यह सिलसिला अब वाइफ़ या हस्बैंड स्वैपिंग तक पहुंच गया है। ताज्जुब की बात है कोई औरत इस काम के लिए कैसे खुद को तैयार करती है खुद को मॉर्डन कहलाने के चक्कर में खुद की इज्जत और आत्मसम्मान को कैसे दांव पर लगा सकता है कोई।

और एक मर्द अपनी पत्नी को किसी और की आगोश में… कल्पना भी कैसे कर सकता है। क्या नाम देंगे इस परिवर्तन को ? बदचलन की परिभाषा क्या है, पति-पत्नी एक दूसरे को धोखा देकर जब ये काम करते हैं तब हम उसे बदचलन कहते हैं। पर हंसी-खुशी एक दूसरे को इस बदकाम के लिए संमति देना बेशर्मी की हद ही कहेंगे या फिर मानसिक विकृति या गंदा खेल ही कहा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में जिस क्रिया को संतानोत्पत्ति हेतु माना जाता है उस क्रिया को घटिया सोच वाले लोगों ने जघन्य और धृणित बना दिया है।

बड़ी- बड़ी पार्टियों में ये खेल खेला जाता है, सब अपनी-अपनी गाडी की चाबियां एक कटोरे में रखते हैं और घुमा देते हैं। सबकी बीवीयों को आंखों पर पट्टी बांधकर उसमें से एक चाबी उठानी होती है। जिसके हाथ में जिसकी कार की चाबी आती है वो एक दूसरे के साथ एक रात के लिए अपने साथी की अदला-बदली करते हैं। पशु की श्रेणी में स्थान लेता जा रहा है इंसान। माना कि सबकी अपनी ज़िंदगी होती है, ज़िंदगी जीने के तरीके होते हैं, पर हम सब जानते हैं कि हाई सोसायटी ही धीरे-धीरे मीडिल क्लास में अपनी जगह बना लेती है। ये मानसिकता अब मध्यम वर्गीय परिवार की आज की पीढ़ी में भी पनपने लगी है। हर दूषण की तरह इसने भी अपने पैर फ़ैलाने शुरू किए हैं। माना कि परिवर्तन ज़िंदगी का नियम है पर इंसान के संस्कार और तौर-तरीके इतने बदल सकते हैं ये एक शर्मनाक बात है। कहां जाके रुकेगी ये बदी। लगता है ऐसे मानसिक तौर पर बीमार लोगों के चुंगल से भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए भी शायद एक जेहाद जगानी होगी।

 

    ©भावना जे. ठाकर   

 

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