लेखक की कलम से

आत्मजा …

कोख में पनपती नन्ही कली

खिलने को तैयार थी

गर्भ में माँ कितना सुकून है।

मुझे अपनी कोख में सँभाल लो

कठोर माया नगरी की चमक की चकाचौंध

से कैसे खुद को बचाऊगी गर कोई मुझे दुत्कारेगा

तानो की बरसातों में, दर्द में सुबकती रातों में

बिस्तर में थकान भरी रातों के टूटे हुए जज्बातों के कोलाहल में,

कोल्हू की तरह पीसना,

जग के कड़वे बोल सुन बनावटी मुस्कान बनाए रख

जन्म से लम्बे सफर तक तेरी परछाई बन कर

कड़वे घूट खुशी से पीकर, जब सौंप दोगी।

मुझे नए जीवन की शुरुआत के लिए, सुहाग की सौगात में

कैद खुशियाँ करने को तेरी एक झलक पाने को माँ

मुझे कितनी-कितनी बार तरसना होगा।

परिवार रूपी बेटियों को नए समाज की पुरानी सोच के

बेबुनियाद जुल्मों को चुपचाप सहम कर आँखों की नमी को

रोककर सीने के दहकते तूफान को दफना कर

चहरे पर जबरदस्ती की थकी सी दबी सी मुरझायी हुई

हंसी दिखा।

हर क्षण मर मर कर जीना होगा ।

लहू जला कर आँसू की तपिश में पसीना बहा ।

जिल्लत भरे अपमान सहने से भी ज्यादा

आबरू लूटने वालों से खुद को बचाना

मुश्किल होगा

माँ छुपा लो कोख में

मुझे ना जाने दो,

अपने जिगर की गहराई को,

रूह के सुकून को क्यों जग के दिये

जख्मी को बरहाल सहना पडेगा।

एक लडकी को जन्म देकर ये

बोलो नाइंसाफ कब मिलेगा ।

बंदिशों की दलदल से मुझे बचा लो आधुनिकता की

दुहाई देकर के वहशीपन के चुंगल से मुझे बचा लो ना

तेरी कोमल अंगों वाली

नाजुक कमसिन शर्मीली

कली को रोधने से रोक लो।

अपनी कोख में मुझे सुरक्षित पनपने दो

अपनी धड़कन से मेरी धड़कन जोड लो।

पत्ते पर ओस की बूंदों की भांति

तेरी कली को सम्भाल लों।

माँ समाज जब तक

इंसानियत का जामा पहन न ले।

मुझे अपनी कोख में पनाह दो।।

 

©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा                        

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