लेखक की कलम से

अनमनी अठखेलियां ….

बाजार गये हम आंसू बेचने,

हर खरीददार बोला की,

अपनों के दिए गए तोहफे,

बेचा नहीं करते!

नासूर बन कुछ नम आँखों में चुभने लगा था

मंजर,

हमने जख्म बाँटने चाहे।

लोग मुट्ठी में नमक लिए स्वागत को बढ़े थे।

हर तरफ हजारो काफिलों में हम हर बार की तरह

तन्हा खड़े थे।

अहसास चटके, ख्वाब भटके दर्द का सैलाब लेकर

मलहम में काँच के चूर चमकते भटकते थके हुए से बोझिल कुछ रिश्ते मिले।

अपनों को भीड़ में हम एक बार फिर तन्हा मिले।

सोचा था आँसू बेचकर चैन खरीद पाऊँगी।

जो भी मिले पल वो उधार मिले।

पल की मुस्कुराहट के बहुत लेनदार मिले

जो भी अहसास मिले दर्द की करवटों से लिपटे

बेशुमार मिले।

कैसे बयां करूँ तड़प नम आँखों की

जब भी देखा मेरे दिल के टुकड़े हजार मिले…..

सोचा चलो आँसू बेच कर कुछ खुशी के पल

खरीद लाए। अपने से मिले आँसू, हमने फिर हममें ही

दबाये। सिसकियों का मोल नहीं होता।

दिल की हसरतों का क्या कहे टूट कर काँच की तरह

बिखर गई मेरे दिल की जमी पर।

उनके मखमली पैरों में न चुभना जिनके लिए हम

नम आँखों में समुद्र छिपाये हैं।

 

©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा

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