लेखक की कलम से

घोर अचरज की दरकार नहीं …

 

तुम्हारी मुस्कान कैसी होगी

यह तय किया बेतरह कूँची ने

कूँची की हरकत से

अनजाने ही मेरे भी होंठ खिले

 

तुम्हारी तिरछी नज़रों की कल्पना में

अपनी ही आँखें खुमारी में बन्द होती दिखीं

 

बाँस के टुकड़े को नज़र भर छुआ

ह्रदय में तैर गई ख़ुद के नाम की सुर लहरियाँ

 

घोर अचरज है

हमें नहीं चाहिए था

कोई नशा

कोई अभिमान

कर्णफूल से अटका ली हैं

मुग्धता की बेरहम तक़रीरें

अवचेतन में

अपने नाम का गुँजार गीत

मुक़र्रर भरोसे की ओर ले जाएगा

 

भरोसा तो चाहिए ही नहीं

कोई आश्वासन भी नहीं

 

कल्पनाओं की जवाबदेही

वर्तमान से चुकानी पड़ती है

 

त्रिभंगी चितवन का किया गया अभ्यास

कलाकार को अपनी तरह प्रस्तुत करेगा…शक़ है !

 

समुद्र का छोर न दिखे तो

यमुना किनारे बची-खुची रेत में

धँसाए रखना चाहिए पाँव

रास छोड़, चित पड़े रहना चाहिए मन्मयी को

 

प्रेम में बुरी तरह पड़े रहने से

बेहतर है

नीलाभ घटाओं से मुक्ति की अपील करनी चाहिए

फटक कर

कदम्ब पर टाँग आना चाहिए मन ….!!!

 

 

    ©पूनम ज़ाकिर, आगरा, उत्तरप्रदेश     

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