लेखक की कलम से
पुकारने वाले …
आज की ग़ज़ल
क्यूँ आये आज तलक न उभारने वाले
वो हार-थक से गये हैं, पुकारने वाले।
कभी तो फ़न के मेरे होंगे ख़ुद बख़ुद क़ायल
मेरे वजूद को पूरा, नकारने वाले ।
तू क्या तलाश करे है, खड़ा हुआ मुझ में
यों रख के फ़ासले, मुझ को निहारनें वाले
छतों पे करते ही रहतें, हैं रोज़ चर्चाएँ
खुले में बैठ के, रातें गुज़ारने वाले ।
चमन की साजो-सवाँरिश का काम ले बैठे
हरेक पेड़ की छालें, उतारने वाले ।
वो गंदी बस्ती में रहते हैं एक अरसे से
तमाम शहर का, कचरा बुहारने वाले ।
जिस हवा से बिखरने का डर सँवार उसे
अरे ! ओ ज़ुल्फ़ किसी की सँवारने वाले।
तू सावधानी से भरना उड़ान अपनी ये
निशाना साध के बैठे हैं, मारने वाले।
©कृष्ण बक्षी