लेखक की कलम से

मर्यादा…..

हर चेहरे के पीछे,
इक नकाब होता है,
सामने बहन व बेटी
कहते तुम,
आड़े में तुममे फिर,
गंदे विचारों का
शबाब होता है।

इतना भी नहीं समझते तुम,
मैं स्त्री हूं नहीं परखते तुम,
अपने गंदे-गंदे शब्दो का,
हम पर वार करते हो,
माँ बहन बेटी तुम्हारे भी घर में है,
तुम उनसे कैसे प्यार करते हो ??

शादी शुदा लक्ष्मी घर में,
तुम्हारे वास करती है,
कौन सी काम वासना ??
तुम्हारे मन में,
इस घृणीत विचार को जन्म देती है?

हो उम्र में मेरे पिता समान फिर भी,
बेटी को बुरी नजर से तकते हो,
मेरी भी इक छोटी सी दुनियाँ बसी,
तुम उजाड़ने पर क्यूँ तुले रहते हो??

डर-डर कर वैसे हम सब जीती,
तुम फिर क्यूँ इतना डराते हो??
नारी तो घर-घर मे सबके,
तुम फिर क्यूँ दिल मेरा जलाते हो??

आँसुओ में जीवन होता हम सब का,
कोख में भी मारी जाती हैं,
पति के घर अगर प्रेम नहीं मिला तो,
जिन्दगी भर दु:ख से टूट जाती हैं।

थोड़े तो समझदार,
न तुम हैवान बनो,
हर स्त्री की मान मर्यादा रखो ,
करो तुम उनका सम्मान,
सब देख रहा उपर वाला,
तेरे कर्म का कर रहा हिसाब,
तू न किसी का दिल दुखा,
बना रह तू अच्छा इंसान।

©अंशिता दुबे, लंदन  

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