मैं भी गा दूं …
एक बार जैसे गाती है कोयल दूर अमराई पर
प्रेम विरह की समिश्रित गीत
कूक उठती है सूने जंगल में
जीवन की नीरवता कू, कू स्वर में
विरह तो है कंठ में पर, प्रेम व्याकुलता भी है मिसरी सी उसके सीने में
ठोस और तरल में है, दिखती नहीं बस बहती रहती है
हृदय के बीचो बीच मंद मंद रूधिर में
प्रिय! मुझे भी तो सम्मोहित और समाधित कर रही है
कोकिल का स्वर सिर्फ तुम्हारी ओर
पर तुम तो हो, शायद नहीं भी मेरे साथ में
सिर्फ आँख की पुतलियों में नाचते रहते हो
दिन और रात में
उसे मैं क्या कहूं स्वप्न या छाया
या कोकिला स्वर की विरह, माया
आ जाओ ना
जीवन की जटिलता को छोड़ कर
मेरे पास व्याकुलता और विरह के गृह में
जहाँ गुंजती रहती है कोकिला सा मेरे हृदय में भी प्रेम विरह की कूक राग
मैं भी गा दू प्रिय!
विरह प्रेम की समिश्रित राग
वो तो उढेल देती है महुआ, आम, बेल के जंगल में
विरह प्रीत की स्वः वेदना
प्रिय मै कहाँ किस जंगल में,
ये सन सन बहती हवा हल्के से धकिया देती है मुझे
पहुंचा देती है मेरे ही विरह मन में
मैं भी गा दूं प्रिय
एक बार जैसे गाती है कोयल दूर अमराई पर
विरह की राग।
©अंशु सिंह, पूर्णिया, बिहार