लेखक की कलम से

मलिका-ए-ग़ज़ल : अख़्तरी बाई फैज़ाबादी से ‘बेगम अख़्तर ‘ तक का सफर …

बेगम अख़्तर का जिस तरह का जीवन था और तवायफ़ परम्परा से ऊपर उठकर किस तरह वह बेगम बनने का क़िरदार अख़्तियार करती हैं, उसे जानना एक हद तक उस दौर के सामाजिक, राजनातिक ढाँचे को भी समझना है।

बेगम अख़्तर का जन्म 7 अक्टूबर, सन् 1914 को जिला फ़ैज़ाबाद में हुआ। वे फ़ैज़ाबाद की नामी-गिरामी तवायफ मुश्तरीबाई और वकील असगर हुसैन की छोटी बेटी थीं। बच्ची बिब्बी (अख़्तरीबाई के बचपन का नाम) को बचपन से ही संगीत से विशेष लगाव था।जहां कहीं गाना होता, वह छुप – छुप कर सुनती और नकल करती।

फ़ैज़ाबाद में आर्थिक परिस्थिति ख़राब होने कर कारण सन् 1920 के आस-पास मुश्तरीबाई उन्हें लेकर गया और कलकत्ता के बीच रहने लगी। यहीं मुश्तरीबाई ने उन्हें परम्परागत शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा के लिए पटियाला घराने के उस्ताद अता मुहम्मद ख़ां के सुपुर्द कर दिया। उस्ताद की शुष्क और गम्भीर गायकी से सीखकर अख़्तरी कभी पूरे मन से खयाल नहीं गा पाती थीं, बल्कि उनके समीप रहकर ग़ज़ल, ठुमरी और दादरा में सिद्धहस्त होती रहीं। बचपन में खयाल ठीक से न सीख पाने की पीड़ा ने उन्हें दोबारा खयाल सीखने के लिए प्रेरित किया और इस बार किराना घराने के दिग्गज उस्ताद अब्दुल वाहिद ख़ां से खयाल की बारीकियों को सीखने में जी-जान से जुट गयीं। सीखने को लेकर इतनी ललक और कुछ नया पा लेने की बेपनाह चाहत ने उन्हें बहुत सारी गायिकी की नायाबियों से नवाज़ा।

कहा जाता है कि अपने से उम्र में बड़ी और लगभग 90 की हो चुकीं भेंडी बाज़ार घराने की अप्रतिम अंजनीबाई मालपेकर से सुना हुआ एक दादरा- ‘मैं तो तेरे दमनवा लागी महाराज’, उनके लगभग पीछे पड़कर उन्होंने सीखा — ख्याल, ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल सीखते हुए जवान हुईं और उनके भीतर बैठे कलाकार का मन पुरबिया, अवधी, भोजपुरी, हिन्दी और उर्दू के खनकते हुए शब्दों को सुन-सुनकर भाषा और बोलियों के लिहाज से समृद्ध होता रहा।

बेगम अख़्तर की गायकी में पूरब का अंग और उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत अनूठे ढंग से परिमार्जित होकर हासिल होती है। उर्दू शब्दों का रवानगी के साथ इस्तेमाल, बेगम अख़्तर की गायकी की एक और बड़ी ताकत है, जिससे उनके समकालीनों में उनका दबदबा अलग ढंग से कायम होता गया।

बेगम अख़्तर की परवरिश को मुश्तरीबाई ने बड़े करीने से तराशा था। मुश्तरीबाई बेगम अख़्तर को उस समय सिनेमा में ले आईं, जिस समय गौहरजान कर्नाटकी की फ़िल्में लोगों के सिर चढ़कर बोलती थीं और उनके मुकाबले अदनी सी अख़्तरी को खड़ा कर दिया। मुश्तरीबाई के ही बढ़ावा देने पर बेगम अख़्तर गया से कलकत्ते इसलिए गयीं कि पारसी थियेटर में काम कर सकें और बाद में बम्बई जाकर अपना मुकाम सिनेमा में बना पायें। 1960 के दशक के मध्य में, एल पीज़ के चलन में आने के शुरुआती दौर में रिकॉर्ड की जाने वाली वह पहली महिला गायिका थीं (अख्तरी : सोज और साज का अफसाना, संपादक यतीन्द्र मिश्र पृ – 29)

इस पूरे प्रकरण में एक बात बहुत साफ है कि तमाम वे महत्त्वपूर्ण औरतें, जिन्हें भारतीय सिनेमा और शास्त्रीय संगीत के आरम्भिक प्रतिनिधि चेहरों के रूप में पहचान मिली- उनकी कामयाबी का अधिकांश सेहरा उनकी मांओं के हिस्से जाता है, जो अपने समय में बेटियों के प्रति विद्रोही बनकर आगे बढ़ सकीं, मगर स्वयं की ज़िन्दगी को सुनहले उजाले में लाकर देखने की हसरत उन कद्दावर औरतों ने कभी नहीं पाली।

“हालाँकि यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सन् 1910 से लेकर 1930 के बीच की ढेरों नामचिन बाइयों ने किस तरह आने वाले समय को भाँप लिया था और इस बात को लेकर ख़ासी पसोपेश में थे कि भविष्य में इस तरह के संगीत के आदर का समय नहीं रहने वाला है। और यह भी, कि आगे चलकर देश आजाद हो जाएगा और स्त्रियों को ज्यादा बेहतर ढंग से अपने दामन फैलाने भर का आकाश हासिल होगा। यदि हम इतिहास पर गौर से रोशनी डालें, तो पायेंगे कि उस समय चार प्रमुख गायिकाएँ ऐसी थीं, जो राजदरबारों में तो मुबारक़बादियों के लिए आती-जाती थी, मगर उनकी सोच इतनी प्रगतिशील थी कि उन्हें पता था कि बदलते हुए समय में उन्हें अपनी लड़कियों के लिए क्या करना है। इनमें नरगिस की माँ जद्दनबाई, शोभा गुर्टू की माँ मेनका बाई, नसीम बानो की माँ शमशाद बेगम और अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी की माँ मुश्तरीबाई प्रमुख हैं।

जद्दनबाई ने बदलते हुए समय को पढ़कर नरगिस को अपनी परम्परा से बहुत मेहनत के साथ अलग किया और उन्हें न केवल अंगरेज़ी तबीयत की शिक्षा दिलाई, बल्कि सआदत हसन मंटो, पृथ्वीराज कपूर और महबूब ख़ान जैसी नई सोच के लोगों के साथ विकसित होने में मदद की। जद्दनबाई को इस बात का पूरा इल्म था कि नरगिस भविष्य में एक बेहतर अभिनेत्री बेगी, इस कारण उन्होंने अपने समय की हर वे बातें नरगिस को सिखाईं, जो चालीस व पचास के दशक में एक सफल अभिनेत्री बनने के लिए जरूरी मानी जाती थीं। यह अपने में अत्यधिक मायने रखने वाली बात है कि नरगिस को उन्होंने हमेशा संगीत, साज़ और घुँघरू से दूर रखा। उन्हें डर था कि संगीत सीखकर कहीं उनकी बेटी गाने का पेशा न अपना ले। इसी तरह मेनका बाई ने पारम्परिक ‘ कोर्ट सिंगिंग ‘ (राजाश्रय में पलने वाला संगीत) से शोभा गुर्टू का आत्मीय परिचय नहीं करवाया, बल्कि उन्हें ले जाकर उन दिग्गज संगीतकारों की सभाओं में खड़ा कर दिया, जिनके अनुसरण करते हुए धीरे-धीरे वे शास्त्रीय गायकी का एक मुकम्मल प्रतिनिधित्व चेहरा बनकर उभरीं।

शमशाद बेगम ने नसीम बानो को और फिर नसीम बानो ने अपनी बेटी सायरा बानो को, इस तरह ट्रेंड किया कि वे दोनों अपने समय की सफल अभिनेत्रियों बन पायीं। अब रह गई बात अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी की। यहाँ इस तथ्य का स्पष्टीकरण ज़रूरी है कि अख़्तरीबाई के जीवन में सबसे प्रासंगिक मुक़ाम उनकी माँ मुश्तरीबाई का ही है, जिसके कारण संगीत के इतिहास को ग़ज़ल, ठुमरी और दादरे के दर्द भरे एहसास: भरे हुए एक जहीन पन्ना बेगम अख़्तर पर हासिल हुआ है। “(अख़्तरी : संपादक, यतीन्द्र मिश्र, पृ:48, संपादक यतींद्र मिश्र ने इस किताब में बेगम अख्तर से जुड़े कई प्रसंगों को बखूबी समेटा है) यह बात अपने आप में खासी दिलचस्प है कि बड़ी तवायफों ने कभी अपनी जिंदगी के उन असहज पन्नों को समाज के आगे नहीं खोला, जिनसे उनकी बेटियों की जिंदगी की उजाले में कुछ बदनुमा छीटें पड़ सकते हों।

उन्मुक्त, स्वच्छन्द और हुनर के पीछे दीवानों की तरह लगी रहने वाली बेगम साहिबा ने वो सब कुछ किया, जो उन्हें पसन्द था। वो सब कुछ पाने की चाहत रखी, जो हसरत बड़े-बड़े उस्ताद रखने से भी घबड़ाते हैं। कई दरों पर जाकर कुछ सीख आने वाली अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी में भी ये हुनर कमाल का था कि वे सबमें पूरी तरह डूबकर भी कही न कहीं बेगम अख्तर वाली टाइप बचा ले जाती थीं।

संगीत के लिए जिस विशेष लय या तरन्नुम की बात अक्सर संगीत के उस्ताद करते हैं, उसका व्यावहारिक पक्ष इनकी गायकी से स्पष्ट होता था। ग़म, आंसू, दर्द, इश्क़, पीड़ा, विरह, श्रृंगार जैसे पलों को कितनी बुलन्दी मुहैया करायी जा सकती है; गायकी में आम जीवन का दर्द किस कदर शास्त्रीय गरिमा अख़्तियार करता है- बेगम अख़्तर इसकी मिसाल थीं। अपने भावों की नज़ाकत में, गम्भीर साहित्यिक उर्दू शब्दों की बंदिशों से बंधी एक ओर मीर, गालिब, मोमिन, दाग की ग़ज़लों को गाती हुई, तो दूसरी ओर बिल्कुल समकालीन और नये शायरों कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूंनी, जिगर मुरादाबादी, सुदर्शन फाक़िर की नज़्मों के साथ, बेगम अख़्तर अपनी समकालीन गायिकाओं से बहुत आगे निकल जाती थीं।

उनके गले की आवाज़ का विशेष अन्दाज उनकी गायकी का अलंकार बन गयी। फिर चाहे वह ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे’सुनकर कोई महसूस करे, चाहे ‘जरा धीरे से बोलो, कोई सुन लेगा’ और ‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया’ जैसे दादरे सुनकर; सभी कुछ उनके अन्दाजे-बयां में बिल्कुल अनूठा था, जिसकी नकल सम्भव नहीं थी।

अख़्तरीबाई के बेगम अख़्तर बनने से बहुत पहले से ही लखनऊ तमाम तरीकों से संगीत की दुनिया में नामी-गिरामी लोगों के इतिहास से भरा रहा है। इनमें हम मुख्य रूप से नवाब वाज़िद अली शाह, बिन्दादीन महाराज, अच्छन महाराज आदि के नाम ले सकते हैं। अख़्तरीबाई की परवरिश, उनकी नज़ाकत और कम उम्र में ढेरों शहरों में अलग-अलग तरीकों से तालीम लेने का असर था कि बाद के दिनों में, जब वे अपने संगीत और उम्र दोनों के ही लिहाज़ से सबसे नाज़ुक और ख़ूबसूरत दौर में थीं, भारत के अधिकांश नवाबों और राजा महाराजाओं ने समय-समय पर उन्हें अपने दरबार की गायिका बनाया। हैदराबाद, भोपाल और रामपुर के नवाबों तथा कश्मीर और अयोध्या के राजघरानों में दरबारी गायिका के रूप में कई वर्षों तक रही बेगम अख़्तर की गिनती हमेशा बड़ी गायिकाओं में होती रही।

अख़्तरी बाई फैज़ाबादी से शुरू होकर बेग़म इश्तिय़ाक अहमद अब्बासी तक बेग़म अख़्तर का सफर फैज़ाबाद से शुरू होकर गया, पटना, भोपाल, रामपुर और मुंबई से होता हुआ वापस लखनऊ पहुंचा।लखनऊ ने गर्व से उन्हें बाई से एक सम्मानित बेगम में उनके रूपांतरण को संभव बनाया।

 

 

©डॉ. विभा सिंह, दिल्ली                                                    

Back to top button